जारी है उत्तराखंड के संसाधनों की लूट

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उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए लंबा आंदोलन चलाने में अपने काम-धंधे के हर्ज से लेकर जान तक की कुर्बानियां तक जिन खांटी पहाड़ियों ने दीं उनकी आज न कोई पूछ है न ही कोई गिनती। उन्हीं के हाथों से चुनी गई सरकार उनके संसाधनों जैसे पानी, पर्यावरण, खनिजों तथा पर्यटन बढ़ाने के नाम पर आबोहवा तथा संस्कृति तक को बाहर वालों के हवाले करती जा रही है। दोनों हाथों से संजो कर देश को जीवनदायी गंगा और यमुना सौंपने के बदले उनके पल्ले सिर्फ प्राकृतिक आपदा और परेशानियां ही आ रही है।

गंगा और यमुना नदियों की बदौलत आज उत्तर प्रदेष से लेकर पष्चिम बंगाल ही नहीं हरियाणा और राजस्थान तक के किसान और फसलों के आढ़तिये मालामाल हैं मगर उनके बहुमूल्य पानी के बदले केंद्र सरकार उत्तराखंडियों को पांच पैसे का मुआवजा भी नहीं दिलाती। राजधानी दिल्ली सहित देश भर में कम से कम 35 करोड़ लोग अपने अस्तित्व के लिए गंगा और यमुना नदियों पर ही निर्भर है। केदारनाथ की ही आपदा को लें तो उसमें कम से कम पांच हजार उत्तराखंडियों को अपनी जान से हाथ धोने पड़े थे। उस काली विभीषिका में हजारों की तादाद में यात्री भी मारे गए थे। इतना ही नहीं हजारों यात्री और स्थानीय लोग आजतक लापता हैं।

देश के मैदानी प्रदूषण के कारण पहाड़ों में बढ़ रही बादल फटने की दुर्घटनाओं के कारण राज्य में हर साल कम से कम पांच सौ लोग हताहत होते हैं। उनके गांव-खेत उजड़ने और घरेलू सामान तथा मवेशियों की हानि अलग से है। बादल फटने की विभीषिका राज्य में हर साल पहले से अधिक विकराल हो रही है। नींद में सोते-सोते ही बेचारे पहाड़ी बाशिंदे बाढ़ में बह कर दम तोड़ रहे हैं। फिर भी उनके नाम पर बने उत्तराखंड के कथित पहाड़ी मुख्यमंत्री की सदारत वाली सरकार उन्हें बारिश के मौसम में सुरक्षित रखने का कोई भी उपाय नहीं कर रहीं। सारी नई टेक्नोलाॅजी उनके सचिवालयों के भीतर ही सिमटी हुई है। क्या बारिश में खतरनाक इलाकों के बाशिंदों को सरकार उनके मवेषियों सहित किन्हीं सुरक्षित ठिकानों पर लाकर नहीं रख सकती। आखिर पहाड़ों में अब आबादी ही कितनी बची है? इसी तरह बारिश में मानव जीवन के लिए खतरनाक सिद्ध होने वाले गांवों के आसपास क्या सेना के बंकरों की तरह सेफ हाउस नहीं बनाए जा सकते?

पीढ़ियों से दुरूह पहाड़ों में बसे लोगों को मौसम का मिजाज देख कर यह बखूबी समझ आ जाता है कि बारिश के दौरान कब बादल फटने की नौबत आ सकती है। लेकिन किसी आपात शरणस्थली के अभाव में उनके पास अपनी जान पर आसन्न खतरे को भांप लेने के बावजूद वहीं मर जाने के अलावा कोई चारा नहीं होता। यदि सेफ हाउस बन जाएं तो आसपास के 10-15 गांव के लोग अपने मवेशियों के साथ कयामत की रात अथवा दुपहरी सुरक्षित बिता कर बच सकते है। फिर मौसम सामान्य होने पर कुदरत के कहर से बची-खुची अपनी जिंदगी के सिरे तलाश कर फिर अपनी दिनचर्या शुरू कर सकते हैं। अफसोस यह है कि उत्तराखंड की पिछली पांच निर्वाचित सरकारों ने ही नहीं बल्कि किसी केंद्र सरकार ने भी उन्हें बचाने की कोई स्थाई व्यवस्था आज तक नहीं की।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चारधाम यात्रा मार्ग को सदाबहार बनाने के लिए तो अपना खजाना खोल दिया मगर गरीब पहाड़ियों की जान बचाने को सुध भी नहीं ली। लेते भी क्यों चारधाम यात्रा पर तो उनके पैतृक राज्य और देश के अन्य अंचलों के लाखों तीर्थ यात्री हर साल दर्शन करने आते हैं और करोड़ों रूपए का कारोबार होता है। मगर बेचारे उत्तराखंडियों से तो शायद उन्हें वोट बटोरने तक ही वास्ता था, उनकी जानमाल बचाने से क्या लेना-देना!

ऐसा नहीं है कि सेफ हाउस बनाने की टेक्नोलाॅजी देश में उपलब्ध नहीं है। कश्मीर में बनी शनानी-श्रीनगर सुरंग ऐसी टेक्नोलाॅजी मौजूद होने का सबसे बड़ा सुबूत है। लेकिन भला उत्तराखंडियों को उसका लाभ कोई भी सरकार क्यों दिलाने लगी? इस लिहाज से देखें तो अलग पहाड़ी राज्य बनने के समय जो मुद्दे ज्वलंत थे वे आज भी उत्तराखंडियों के मन में सुलग रह हैं। उत्तराखंड ही नहीं अब तो यूपी में भी उत्तराखंडी मूल के व्यक्ति योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं मगर उन्होंने भी अपने छोटे भाई यानी उत्तराखंड को उसके हिस्से की परिसंपत्तियां सौंपने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। उत्तराखंड के भीतर उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग इत्यादि की परिसंपत्तियों के बोर्ड राज्य में अनेक जगह आज भी लगे हुए हैं।

गैरसैंण में राजधानी आज सोलह साल बाद भी नहीं बनी। बस अंग्रेजों द्वारा अपनी बसाए गए देहरादून में ही राजधानी के नाम पर खानापूर्ति हो रही है। हां इतना जरूर है कि पिछले सोलह साल में ही राजधानी बनने के बाद से देहरादून अपने पूरे शबाब पर आ गया है। बराए नाम भराड़ीसैंण में कुछ भवन जरूर खड़े कर दिए गए हैं ताकि आज नहीं तो कल राज्य की राजधानी गैरसैंण क्षेत्र में पहुंचने का भ्रम जनमानस में बना रहे। वैसे भी देहरादून की सरकारों को ज्यादा चिंता दायित्वधारियों की है जो अपने-अपने दलों की सरकार में जनता के पैसे पर ऐष करते हैं। वीरपुर-लच्छी से लेकर नानीसार और पोखरा तक से जनाधिकृत प्राकृतिक संसाधन जिस बेहयाई से पूंजीपतियों को सौंपे गए, उसमें नेता और नौकरशाह दोनों ही शामिल है। .

राज्य के पानी अैेर नदियों पर कब्जे की साजिश तमाम पर्यावरणीय चेतावनियों के बावजूद जारी है। पनबिजली परियोजना लगाने की हड़बड़ी में आवश्यक जन सुनवाई तक प्रषासन नहीं होने दे रहा। पंचेश्वर पनबिजली परियोजना के बाबत हाल में ऐसा ही मंजर दिखा। उसके लिए जनसुनवाई के दौरान जनता और जागरूक प्रतिनिधियों को धकेल कर एक तरफ कर दिया गया। वहां मौजूद पत्रकारों और उत्तराखंड आंदोलन के सूत्रधार काशी सिंह ऐरी तक से धक्कामुक्की की गई। अफसोस यह है कि ऐसा राज्य में जनता का तीन चैथाई से अधिक बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुए दल के गुर्गों ने अपने आलाकमान के इषारे पर किया। इससे साफ है कि सरकार जनसुनवाई दरअसल हर कीमत पर पंचेश्वर बांध के पक्ष में ही करवाने पर आमादा थी।

इन हालात में साफ है कि गंगा-यमुना और चार धामों को अपने में समेटे मालामाल उत्तराखंड की गरीब जनता को जरूरत फिर से जनांदोलन छेड़ने की है जो लुटेरे और दलाल नेताओं की गिरफ्त से मुक्त करके राज्य की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति अपने हित के अनुकूल बदल सके।