उत्तराखंड के जलते जंगल

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File photo

मनुष्य का जन्म प्रकृति में हुआ और उसका विकास भी प्रकृति के सानिध्य में हुआ। इसीलिए प्रकृति और मनुष्य के बीच हजारों साल से सह-अस्तित्व की भूमिका बनी चली आई। मनुष्य ने सभ्यता के विकासक्रम में मनुष्येतर प्राणियों और पेड़-पौधों के महत्व को समझा तो कई जीवों और पेड़ों को देव-तुल्य मानकर उनके सरंक्षण के व्यापक उपाय किए, किंतु जब हमने जीवन में पाश्चात्य शैली और विकास के लिए पूंजी व बाजारवादी अवधारणा का अनुसरण किया तो यूरोप की तर्ज पर अपने जंगलों में विल्डरनेस की आवधारणा थोप दी।

विल्डरनेस के मायने हैं, मानवविहीन सन्नाटा, निर्वात अथवा शून्यता! जंगलवासियों को विस्थापित करके जिस तरह वनों को मानव-विहीन किया गया है, उसी का परिणाम उत्तराखण्ड के जंगल पिछले तीन माह से सुलगते हुए अब दावानल का रूप ले चुके हैं। यदि इन वनों में मानव आबादियां रह रही होतीं तो इस भीषण दावानल का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि जंगलों के साथ जो लोग सह-अस्तित्व का जीवन जी रहे थे, वे आग लगने पर आग बुझाना भी जानते थे। दुर्भाग्य से हमने आज हालात ऐसे बना दिए हैं कि सरकार और स्थानीय लोगों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला आग को बुझाने की बजाय,भड़काने का काम कर रहा है। नतीजतन पौड़ी-गढ़वाल से लेकर पिथौरागढ़ तक जंगल सुलग रहे हैं।

यूं तो जंगल में आग लगना एक सामान्य घटना है। मामूली वन-प्रांतरों में लगती ही रहती हैं। लेकिन इस बार करीब तीन माह पहले सुलगी आग ने उत्तराखण्ड के समूचे जंगलों को विकराल लपटों के घेरे में ले लिया है। साफ है, मामूली चिंगारी से दावानल में तब्दील हुई इस आग को बुझाने में ऐसा पहली बार हुआ है, जब स्थानीय थल व वायु सेना के साथ राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन बल भी लगा है। यह आग चकराता में थलसेना के शिविर तक पहुंच गई है। इसे बुझाने में सेना के जवान लगे हुए हैं। एक हजार से ज्यादा स्थानों पर लगी यह जंगली आग सैकड़ों ग्रामों और घरों की दहलीज तक पहुंच गई है। बेकाबू होती इस आग पर नियंत्रण के लिए स्वयं उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को मोर्चा संभालना पड़ा है।

सरकारी आंकड़ों को मानें तो 3100 हेक्टेयर वन-खंड सुलग रहे हैं। 1000 से भी ज्यादा स्थानों पर आग ने तबाही की इबारत लिख दी है। 250 से भी ज्यादा गांव इसकी चपेट में हैं। उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 प्रतिशत, यानी 34,651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र हैं।

चीड़ के जंगल और लैंटाना की झाड़ियां इस आग को फैलाने में सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। दरअसल चीड़ की पत्तियां पतझड़ के मौसम में आग में घी का काम करती हैं। इसी तरह लैंटाना जैसी विषाक्त झाड़ियां आग को भड़काने का काम करती हैं। करीब 40 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में ये झाड़ियां फैली हुई हैं। इस बार इन पत्तियों का भयावह दावाग्नि में बदलने के कारणों में वर्षा की कमी, जाड़ों का कम पड़ना, गर्मियों का जल्दी आना और शुरुआत में ही तापमान का बढ़ जाना है। इन वजहों से यहां पतझड़ की मात्रा बढ़ी, उसी अनुपात में मिट्टी की नमी घटती चली गई। ये ऐसे प्राकृतिक संकेत थे, जिन्हें वनाधिकारियों को समझने की जरूरत थी। विडंबना यह रही कि जब वनखंडों में आग लगने की शुरुआत हुई तो नीचे के वन अमले से लेकर आला अधिकारियों तक ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।

वैसे चीड़ और लैंटाना भारतीय मूल के पेड़ नहीं हैं। भारत आए आंग्रेजों ने जब पहाड़ों पर आशियाने बनाए, तब उन्हें बर्फ से आच्छादित पहाड़ियां अच्छी नहीं लगीं। इसलिए वे ब्रिटेन के बर्फीले क्षेत्र में उगने वाले पेड़ चीड़ की प्रजाति के पौधों को भारत ले आए और बर्फीली पहाड़ियों के बीच खाली पड़ी भूमि में रोप दिए। इन पेड़ों को जंगली जीव व मवेशी नहीं खाते हैं, इसलिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण पाकर ये तेजी से फलने-फूलने लगे। इसी तरह लैंटाना भारत के दलदली और बंजर भूमि में पौधारोपण के लिए लाया गया था। यह विषैला पेड़ भारत के किसी काम तो नहीं आया, लेकिन देश की लाखों हेक्टेयर भूमि में फैलकर, लाखों हेक्टेयर उपजाऊ भूमि जरूर लील ली। ये दोनों प्रजातियां ऐसी हैं, जो अपनी छाया में किसी अन्य पेड़-पौधे को पनपने नहीं देती हैं। चीड़ की एक खासीयत यह भी है कि जब इसमें आग लगती है तो इसकी पत्तियां ही नष्ट होती हैं। तना और डालियों को ज्यादा नुकसान नहीं होता है। पानी बरसने पर ये फिर से हरिया जाते हैं। कमोबेश यही स्थिति लैंटाना की है। चीड़ और लैंटाना को उत्तराखंड से निर्मूल करने की दृष्टि से कई मर्तबा सामाजिक संगठन आंदोलन कर चुके हैं, लेकिन सार्थक नतीजे नहीं निकले। अलबत्ता इनके पत्तों से लगी आग से बचने के लिए चमोली जिले के उपरेवल गांव के लोगों ने जरूर चीड़ के पेड़ की जगह हिमालयी मूल के पेड़ लगाना शुरू कर दिए। जब ये पेड़ बड़े हो गए तो इस गांव में 20 साल से आग नहीं लगी। इसके बाद करीब एक सैकड़ा से भी अधिक ग्रामवासियों ने इसी देशज तरीके को अपना लिया। इन पेड़ों में पीपल, देवदार, अखरोट और काफल के वृक्ष लगाए गए हैं। यदि वन-अमला ग्रामीणें के साथ मिलकर ऐसे उपाय करता तो आज उत्तराखंड के जंगलों की यह दुर्दशा देखने में नहीं आती।

जंगल में आग लगने के कई कारण होते हैं। जब पहाड़ियां तपिश के चलते शुष्क हो जाती हैं और चट्टानें खिसकने लगती हैं, तो अक्सर घर्षण से आग लग जाती है। तेज हवाएं चलने पर जब बांस परस्पर टकराते हैं तो इस टकराव से पैदा होने वाले घर्षण से भी आग लग जाती है। बिजली गिरना भी आग लगने के कारणों में शामिल है। ये कारण प्राकृतिक हैं, इन पर विराम लगाना नामुमकिन है। किंतु मानव-जनित जिन कारणों से आग लगती है, वे खतरनाक हैं। इसमें वन-संपदा के दोहन से अटाटूट मुनाफा कमाने की होड़ शामिल है।

भू-माफिया, लकड़ी माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों के गठजोड़ की तिकड़ी इस करोबार को फलने-फूलने में सहायक बनी हुई है। राज्य सरकारों ने आजकल विकास का पैमाना भी आर्थिक उपलब्धि को माना हुआ है, इसलिए सरकारें पर्यावरणीय क्षति को नजरअंदाज करती हैं। यही वजह है कि उत्तराखंड राज्य सरकार ने 2013 में केदारनाथ में पल भर के लिए जो भीषण जल-प्रलय आया था, उससे कोई सबक नहीं लिया।

आग से बचने के कारगर उपायों में पतझड़ के दिनों टूटकर गिर जाने वाले जो पत्ते और टहनियां आग के कारक बनते हैं,उन्हें जैविक खाद में बदलने के उपाय किए जाएं। केंद्रीय हिमालय में 2.1 से लेकर 3.8 टन प्रति हेक्टेयर पतझड़ होता है। इसमें 82 प्रतिशत सूखी पत्तियां और बाकी टहनियां होती हैं। जंगलों पर वन विभाग का अधिकार प्राप्त होने से पहले तक ज्ञान परंपरा के अनुसार ग्रामीण इस पतझड़ से जैविक खाद बना लिया करते थे। यह पतझड़ मवेशियों के बिछौने के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। मवेशियों के मल-मूत्र से यह पतझड़ के बाद उत्तम किस्म की खाद में बदल जाता था, किंतु अव्यावहारिक वन कानूनों के वजूद में आने से वनोपज पर स्थानीय लोगों का अधिकार खत्म हो गया। स्थानीय ग्रामीण और मवेशियों का जंगल में प्रवेश वर्जित हो जाने से पतझड़ यथास्थिति में पड़ा रहकर आग का प्रमुख कारण बन रहा है। इस सब के बावजूद जंगल में लगी आग को बुझाने के तरीके परंपरागत हैं। वन अमला हरी टहनियों की झाडू बनाता है और उसकी फटकार से आग बुझाने का काम करता है। इस तरीके से दावानल में बदली वनाग्नि को नहीं बुझाया जा सकता है।