मेलों पर पड़ी नोटबंदी की मार, जेब खाली स्टाॅल खाली

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मोदी सरकार की नोटबंदी से जहां लोगों को परेशानी और बैंकों और एटीएमों के बाहर लंबी लाइनें लगानी पड़ रही है वहीं अब इस नोटबंदी का असर मेलों में अपनी दुकाने लगाकर कमाई करने वाले दुकानदारों पर भी पड़ता दिख रहा है। देहरादून के परेड ग्राउंड में हर साल गांधी आश्रम खादी भवन का वार्षिक मेला लगता है जहां हस्त कला व उत्तराखण्ड के अलग-अलग जिलों के स्टाॅल लगाए जाते हैं। साल के अंत में लगने वाला यह मेला लोगों में आकर्षण का केंद्र होता है। इस मेले में अलग-अलग तरह जैसे की अचार, मसाला, सजावट का सामान,कपड़े,चप्पल जूते,चादर,कंबल,रजाई आदि के स्टाल्स लगाए जाते हैं। ये माला राज्य के अलग अलग जिलों और अन्य दूरदराज़ इलाकों के दुकानदारों के लिये कमाई का बेहतर मौका होता है। एक छत के नीचे ये लोग राजधानी के ग्राहकों को अपना सामान बेच पाते हैं। वहीं राजधानी में रह रहे लोगों के लिये भी सीधे पहाड़ के सभी इलाकों के सामान को खरीदने का ये सुनहरा मौका रहता है।

हर साल की तरह इस साल भी अलग-अलग शहरों से लोग अपना सामान लेकर आए लेकिन इस बार न तो पहले जैसी भीड़ है न पहले जितने ग्राहक। पूछने पर दुकानदार बताते हैं कि इस साल ने पिछले कई सालों का रिकाॅर्ड तोड़ दिया है। कपड़ों की दुकान लगाने वाले छोटू बताते हैं कि पहले दिन में ही ग्राहकों की भीड़ हो जाती थी अब थोड़े बहुत लोग शाम को आते हैं, जहां पहले दिन का 10-11 हजार रुपये का माल आराम से बिक जाता था अब 3-4 हजार भी मुश्किल से मिलता है।

इसी मेले में उत्तरकाशी के डूंडा (बीरपुर) के सुंदर सिंह अपनी दो बाई तीन की दुकान में आंखे लगाये ग्राहकों के इंतज़ार में बैठे हैं। सुंदर बताते हैं कि धुकान का किराया जो कि तीन हजार है उन्हें मेला शुरु होने से पहले देना पड़ता है। वो कहते हैं कि पिछले साल तक बहुत पब्लिक आती थी और अच्छा खासा सामान बिक जाता था लेकिन नोटबंदी की वजह से न तो पब्लिक आ रही न हमारी बिक्री हो रही। जो थोड़े बहुत ग्राक आ रहे हैं उनके पास भी खुले पैसे की दिक्कत हो रही है।साल में एक बार लगना वाले मेले में ये दुकानदार अच्छी कमाई कर लिये करते थे लेकिन इस बार खाली पड़े पंडाल और इनके माथे पर चिंत्ता की लकीरें ये साफ कर रही हैं कि आने वाला समय इनके लिये भी मुश्किलों भरा रहेगा।

केंद्र और राज्य सरकारें नोटबंदी के चलते सारी अर्थव्यवस्था को कैशलेस बनाने पर जोर दे रहे हैं। लेकिन फिर वही सवाल खड़ा होता है कि बिना लोगों को कैशलेस इकाॅनमी के बारे मे जागरूक करे ये जमीनी सच्चाई कब और कैसे बन सकेगा।