हर्षिल: उत्तराखंड का एक ऐसा गांव जहां से नहीं होता पलायन

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हर्षिल
– यहां एक छोटा सेब का काश्तकार भी सालाना कम से कम पांच लाख रुपये कमाता है
(उत्तरकाशी) एक ओर जहां उत्तराखंड के सीमांत गांव पलायन के चलते खाली हो रहे हैं, वहीं उत्तरकाशी में चीन सीमा से लगता हर्षिल और उसके आसपास के 8 गांव विकास की अलग ही कहानी बयां करते हैं। कभी बेहद गरीब और पिछड़े इन गांवों की तकदीर बदली इन गांवों के युवाओं ने, जिन्होंने हाथ में औजार लेकर गांव के आसपास मौजूद हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों में सेब के बगीचे बना डाले। आज इन गांवों में एक छोटा सेब का काश्तकार भी सालाना कम से कम पांच लाख रुपये कमाता है। कई ऐसे भी हैं, जो सालाना 25 लाख रुपये तक कमाते हैं। यहां का सेब दिल्ली की राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मंडियो में भी अपनी विशेष पहचान रखता है।
जिला उत्तरकाशी शहर से गंगोत्री की तरफ जायेंगे तो 80 किलोमीटर बाद हर्षिल आता है। हर्षिल से महज 20 किमी आगे गंगोत्री धाम है। 2470 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हर्षिल अपने नैसर्गिक भोगोलिक सौन्दर्य के लिए भी जाना जाता है। कुल बीस किलोमीटर क्षेत्रफल में आठ गांव हैं। इनकी जनसंख्या 10 हजार के करीब है। इन गांवों में मुख्य तौर पर धराली, मुखवा, हर्षिल, बगोरी, झाला, पुराली, जसपुर और सुखी है। सदियों पहले से यहां के बाशिंदे भेड़ पालन का काम कर अपनी अजीविका चलाते थे। भेड़ के ऊन से बने वस़्त्रों को लेकर यहां के लोग तिब्बत में ताकलाकोट मंडियों समेत विभिन्न बाजारों में बेचते थे लेकिन 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद ये व्यापार पूरी तरह से रुक गया।
अविभाजित उत्तर प्रदेश के दौर में ये इलाका बहुत पिछड़ा हुआ था। कई दशकों तक इन गांवों के परिवारों ने बेहद गरीबी देखी। अस्सी के दशक में यहां के युवाओं ने हिमाचल की तर्ज पर सेब के बगीचे लगाने शुरू किये। असल में, सेब इस बेल्ट में आजादी से बहुत पहले ब्रिटिश सेना का एक अधिकारी फ्रेडरिक ई विल्सन लेकर आया था। विल्सन को उत्तराखंड में पहाड़ी विल्सन के नाम से भी जाना जाता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद विल्सन ने ब्रिटिश सेना को त्याग दिया और टिहरी गढ़वाल के राजा से शरण पाने के लिए मुलाकात की लेकिन राजा ने उसे शरण नहीं दी। उसके बाद विल्सन वहां से भागीरथी नदी के किनारे किनारे सुदूरवर्ती देवदारों से आच्छादित जंगलों से होकर हर्षिल के समीप मुखवा गांव पहुंचा। जहां एक परिवार ने उसे शरण दी। वहां पर बसने के बाद विल्सन ने देखा कि हर्षिल और उसके आसपास के गांव की जलवायु व भौगोलिक परिस्थिति तथा उपजाऊ मिटटी सेब, आलू व राजमा उगाने के लिए मुफीद है।
उत्तराखंड में कहावत है न्यूटन के सेब के बाद भारत में विल्सन का सेब खूब प्रसिद्ध है। इसके साथ ही हर्षिल की राजमा पूरे देश में सबसे महंगी दालों के रूप में जानी जाती है। राॅबर्ट हचिंसन की कई किताबों में द राजा ऑफ हर्षिल में विल्सन का विस्तृत वर्णन मिलता है। 1925 में विल्सन ने सबसे पहले सेब का बगीचा तैयार किया, लेकिन गरीबी से जूझ रही हर्षिल और उसके आसपास की आबादी को 1960 में अहसास हुआ कि विल्सन द्वारा लगाये गये गोल्डन डिलिसियस और रेड डिलिसियस प्रजाति के सेब उनकी तकदीर बदल सकते हैं। उसके बाद यहां के युवाओं ने आठ गांवों में बगीचे तैयार किये और आज जम्मू कश्मीर और हिमाचल के बाद उत्तराखंड के इस इलाके के सेब पूरी दुनिया में सबसे उम्दा माने जाते हैं। विशेष गुणवत्ता के मामले में हर्षिल क्षेत्र के सेब अव्वल माना जाता है।
आज उत्तरकाशी जिले में करीब 10 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में सेब के बगीचे हैं और प्रतिवर्ष करीब 2500 मीट्रिक टन उत्पादन होता है। इसमें डेढ़ लाख पेटी सेब क़्वालिटी वेरायटी होती है। जो विभिन्न बाजारों में 10 करोड़ तक बिक जाता है। दराली गांव के काश्तकार सचेंद्र पंवार बताते हैं कि वो हर साल लगभग तीन से चार लाख रुपये तक के सेब बेच देते हैं। 44 साल के सचेंद्र बताते हैं कि भारत चीन व्यापार करने उनके पिता केशर सिंह पंवार जाया करते थे। जब ये व्यापार बंद हुआ तो उनके परिवार ने बहुत आर्थिक मुश्किलें झेलीं लेकिन फिर उन्होंने बगीचे तैयार किये और आज उनकी आर्थिक हालत काफी अच्छी है। सचेंद्र बताते हैं कि ये इलाका पूरे उत्तराखंड का सबसे समृद्ध इलाका है। अब उनके बच्चे उत्तरकाशी में पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे हैं और वो उन्हें उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजना चाहते हैं।
इसी गांव के काश्तकार सतेंद्र सिंह बताते हैं कि इन गांवों में कई किसान ऐसे हैं जो हर साल बीस लाख रुपये तक का सेब बेचते हैं। मुखवा गांव के सोमेश सेमवाल बताते हैं कि उन्होंने अपने घर पर सेब से बनने वाली चिप्स की मशीन भी लगाई है। उनका हर साल सेब पहले ही ठेके में बिक जाता है। कुछ सेब का वह बायो प्रोडेक्ट भी तैयार करते हैं। वह बताते हैं कि 30 फीसद सेब तो पर्यटक ही गांव से खरीद लेते हैं।