उत्तराखंड का रम्माणः मुखौटा शैली की अनूठी लोक संस्कृति

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उत्तराखंड

उत्तराखंड ने सदियों से लोक संस्कृति, लोक कालाओं, लोक गाथाओं को संजोकर रखा है। विश्व प्रसिद्ध नौटी की नंदाराजात हो या फिर देवीधुरा का बग्गवाल युद्ध, गुप्तकाशी के जाख देवता का जलते अंगारों पर हैरतअंगेज नृत्य हो या फिर जौनसार का बिस्सू मेला। ये सभी देवभूमि की लोकसंस्कृति की झलक दिखलाती है।

उत्तराखंड में रामायण, महाभारत की सैकड़ों विधाएं मौजूद हैं, जिसमें से कई विधाएं विलुप्ती की कगार पर हैं। परंतु कई लोगों के अथक प्रयास और दृढ़ संकल्प, निश्चय से इनके संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व कार्य कर इस लोक संस्कृति को बचाने के लिए अहम भूमिका निभाई है। जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों और श्रद्धालुओं को यहां की लोकसंस्कृति के दर्शन कराते हैं, साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को संजोए रखने का प्रयास भी करते है। ऐसी ही एक लोक संस्कृति है रम्माण। चमोली के पैनखण्डा से यूनेस्को के विश्व सांस्कृतिक धरोहर बनने में रम्माण ने लोक संस्कृति की अनूठी छटा पेश की है। जिसने देवभूमि को हर बार गौरवान्वित होने का अवसर दिया है।

ये है रम्माण-

माना जाता है कि रम्माण का इतिहास लगभग 500 वर्षों से भी पुराना है। जब यहां हिन्दू धर्म का प्रभाव समाप्ति पर था तो आदि गुरु शंकराचार्य ओर से हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म के लिए पूरे देश में चार पीठों की स्थापना की गई, साथ ही ज्योर्तिमठ (जोशीमठ) के आस-पास के इलाकों में हिन्दू धर्म के प्रति लोगों को पुनः जागृत करने के लिए अपने शिष्यों को हिन्दू देवी-देवताओं के मुखौटे पहनाकर रामायण, महाभारत के कुछ अंशों को मुखौटा नृत्य के माध्यम से गांव-गांव में भेजा गया ताकि लोक हिन्दू धर्म को पुनः अपना सकें। शंकराचार्य के शिष्यों की ओर से कई सालों तक मुखौटे पहनकर इन गांवों में नृत्यों का आयोजन किया जाता रहा, जो बाद में यहां के समाज का अभिन्न अंग बनकर रह गई और आज विश्व धरोहर बन चुकी है।

ऐसा होता है आयोजन-

पैनखण्डा (जोशीमठ) के सलडू-डूंग्रा गांव में रम्माण का आयोजन प्रतिवर्ष बैशाख माह में किया जाता है। एक पखवाड़े तक चलने वाली मुखौटा शैली की यह लोक संस्कृति आज शोध का विषय बन गई है। पांच सौ वर्ष से चली आ रही इस धार्मिक विरासत में राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान के पात्रों की ओर से नृत्य शैली में रामकथा की प्रस्तुति दी जाती है। जिसमें 18 मुखौटे 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, आठ भंकोरे प्रयोग में लाये जाते हैं। इसके अलावा राम जन्म, वनगमन, स्वर्ण मृग वध, सीता हरण, लंका दहन का मंचन ढोलों की थापों पर किया जाता है। जिसमें कुरू जोगी, बण्यां-बण्यांण तथा माल के विशेष चरित्र होते हैं जो लोगों को खासे हंसाते हैं, साथ ही जंगली जीवों के आक्रमण का मनमोहक चित्रण म्योर-मुरैण नृत्य नाटिका भी होती है।

दो अक्टूबर 2009 को विश्व धरोहर बना रम्माण-

रम्माण को विश्व धरोहर बनाने में डॉ. कुशल सिंह भण्डारी (सलूड-डूंग्रा), प्रो. डीआर पुरोहित, पूर्व निदेशक केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय, अरविंद मुदगिल छायाकार सहित विभिन्न लोगों का ममहत्वपूर्ण योगदान रहा है। वर्ष 2007 तक रम्माण सिर्फ पैनखण्डा तक ही सीमित था परंतु गांव के ही डॉ. कुशल सिंह भण्डारी के मेहनत का ही नतीजा था कि आज रम्माण को वो मुकाम हासिल है। कुशल सिंह भण्डारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसे अंग्रेजी में अनुवाद किया, तत्पश्चात इसे गढ़वाल विश्वविद्याल लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र तक पहुंचाया गया।

इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आई कि इस संस्थान की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोक इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया, जिन्होंने दिल्ली में अपनी शानदार प्रस्तुतियां दी। तत्पश्चात इसे भारत सरकार की ओर से यूनेस्को भेजा गया, जिसके बाद दो अक्टूबर 2009 को यूनेस्को की ओर से पैनखण्डा के रम्माण को विश्व सांस्कृतिक धरोहर घोषित किया गया तथा 11 व 12 दिसंबर 2009 को आईसीएस के दो सदस्यीय दल में शामिल जापान मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने प्रमाण-प्रत्र ग्रामवासियों को सौंपे तो गांव वालों की खुशी का ठिकाना ना रहा,वहीं रम्माण ने गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली राजपथ परेड में दुनिया को लोकसंस्कृति के दीदार कराये।

बण्यां-बण्यांण नृत्य

इसके बारे में कहा जाता है कि ये तिब्बत के व्यापारी थे जो व्यापार करने गांवों में आते थे, एक बार चोरों ने इनका सबकुछ लूट लिया जिसे इस नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।

म्योर-मुरैण नृत्य-

पहाड़ों में जंगलों में लकड़ी और घास लाने के समय जंगली जानवरों की ओर से आक्रमण किया जात है, जिसका चित्रण म्योर-मुरैण नृत्य में किया जाता है। माल-मल्ल नृत्य 1804-14 के समय गोरखा काल में स्थानीय लोगों और गोरखाओं के मध्य हुए युद्ध का चित्रण इस नृत्य में किया जाता है। कुरू-जोगी हास्य पात्र जो अपने पूरे शरीर पर कुरू (विशेष प्रकार का घास चिपकने वाला) लगाकर लोगों के मध्य जाता है। कुरू चिपकने के भय से लोग इधर-उधर भागते हैं, कुरू जोगी (साधु) अपने शरीर के कुरू को निकालकर लोगों पर फेंकता है। अर्थात कुल मिलाकर रम्माण में संस्कृति, इतिहास, जीवनशैली की अनूठी झलक देखने को मिलती है। रम्माण के अंत में भूम्याल देवता प्रकट होते हैं और समस्त गांववासी भूम्याल को एक परिवार विशेष के घर विदाई देने पहुंचते हैं, जहां पूरे सालभर उसी परिवार द्वारा भूम्याल देवता की पूजा-अर्चना की जाती है।

रम्माण के संयोजक डॉ. कुशल सिंह भण्डारी ने बताया कि इस साल विश्व की सांस्कृतिक विरासत रम्माण का आयोजन 27 अप्रैल को हो रहा है। उन्होंने सभी लोगों और लोकसंस्कृति प्रेमियों से रम्माण मंचन में आने का निमंत्रण दिया है।