100 साल पूरे किये 3 कुमाऊं के गौरवपूर्ण इतिहास ने, आर्मी चीफ पहुंचे पिथौरागड़

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भारतीय सेना की सबसे पुरानी रेजिमेंट में से एक और ब्रटिश भारतीय सेना की पहली कुमाऊंनी बैटेलियन 3 कुमांऊ राइफ्लस VS आज 100 साल पूरे कर लिये।इस रेजिमेंट की स्थापना अक्टूबर 23,1917 में अल्मोड़ा के करीब हुई थी। इस मौके पर रेजिंमेंट से जुड़े करीब 600 पूर्व सैनिक जिनमे अफसर और सैनिक सभी पिथौरागड़ में रेजिमेंट के साथ जश्न में शामिल हो रहे हैं।

इस मौके पर थल सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत पिथौरागड़ पहुंचे।जेनरल रावत ने कहा कि कुमाऊंनी जवान हर परिस्थिति में अपना मनोबल बनाए रखते हैं। हर परिस्थिति को अपने अनुकूल कर लेते हैं। तृतीय कुमाऊं रायफल्स ने इसे साबित किया है।
रविवार को तृतीय कुमाऊं रायफल्स के परेड मैदान में आयोजित समारोह में शिरकत करने पहुंचे थल सेना अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने रेजीमेंट के 100 साल के इतिहास को गौरवशाली बताया। कुमाऊं रायफल्स के उल्लेखनीय कार्यों का हवाला देते जनरल रावत ने कहा कि अपनी स्थापना के एक साल के भीतर ही इस रेजीमेंट ने युद्ध में भाग लेकर वीरता का परिचय दिया। विभिन्न अभियानों में सफलता के झंडे गाड़ कर अपने पराक्रम को दिखाया। 58 आतंकवादियों को मार गिराया। रेजीमेंट ने कई बार वीर चक्र, शौर्य चक्र, चीफ ऑफ़ आर्मी सम्मान से सम्मानित होने का गौरव पाया है।

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अपने 100 साल के इतिहास में इस रेजिमेंट ने की तरह के इलाकों में और आजादी से पहले और उसके बाद की ऑपरेशनस में हिस्सा लिया है। इसके साथ साथ रेजिमेंट ने संयुक्त राष्ट्र में भी अपनी सेवाऐं दी हैं।

जानकार बताते हैं कि पहले विश्व युद्ध के समय सैनिकों की कमी महसूस हो रही थी। ये देखा गया कि भारी संख्या में कुमाऊंनी युवा गढ़वाल और अन्य रेजिमेंट में भर्ती हो रहे हैं लेकिन उनके मन में अपने खुद के झंडे तले लड़ने की चाह थी। लंबे समय और प्रयासों के बाद ये सपना हकीकत बन सका।

1857 में कुमाऊंनी लोगों ने कालू सिंह माहरा के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्रज्य के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया था। इसका नतीजे ये रहा कि इसके बाद ब्रिटिश सरकरा ने इस इलाके से भर्ती करना ही बंद कर दिया। हांलाकि इसके बाद भी यहां के लोग नाम बदलकर गढ़वाल और अन्य रेजिमेंट में भर्ती लेते रहे।

इस बैटैलियन का नाम 4/39 गढ़वाल राइफ्ल रखा गया था लेकिन एक महीने के अंदर ही इसे 4/39 कुमाऊं राइफ्ल कहा जाने लगा और आगे चलकर 1/50 कुमाऊं राइफ्लस। ये रेजिमेंट शैरोन की लड़ाी का भी हिस्सा रही। ये लड़ाई सितंबर 19-25,1918 में पहले विश्व युद्ध में लड़ी गई थी और इसी लड़ाी में पहली बार कुमाऊंनी पराक्रम ने अपना झंडा गाड़ा था। 15 मार्च 1922 में इसका नाम बदलकर 1 कुमाऊं और बाद में 3 कुमाऊं रेजिमेंट कर दिया गया था।