अब छावनी परिषदों की जंग की दलों की तैयारी

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देहरादून,  नए वर्ष में सियासी दलों को नगर निकायों के एक और चुनाव से गुजरना है। यह चुनाव छावनी परिषदों के हैं। दस फरवरी 2020 को देश भर की छावनी परिषदों का कार्यकाल खत्म हो रहा है। उत्तराखंड में मौजूद नौ छावनी परिषदों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सियासी दलों ने अपना होमवर्क शुरू कर दिया है। हालांकि ये भी खबरें आ रही हैं कि छावनी परिषद अधिनियम में संशोधन की केंद्र सरकार के स्तर पर तैयारी की जा रही है। इस वजह से वहां पर कुछ समय प्रशासक राज रह सकता है।
उत्तराखंड के नौ छावनी परिषदों में देहरादून की हैसियत सबसे बड़ी है। 50 हजार से ज्यादा की आबादी वाली देहरादून छावनी परिषद ए श्रेणी की है। दून शहर के ही अंदर एक और छावनी परिषद क्लेमनटाउन है। दून जिले में चकराता और मसूरी में भी छावनी परिषद हैं। इसके अलावा, प्रदेश में रुड़की, लैंसडाउन, अल्मोड़ा, रानीखेत और नैनीताल छावनी परिषद हैं। उत्तराखंड की छावनी परिषदों का सियासी मिजाल देखें, तो यह भाजपा और कांग्रेस के वर्चस्व की तस्वीर को सामने रखता है। अन्य किसी दल के लिए कभी कोई जगह नहीं रही है। सियासी दल 2018 में नगर निकाय चुनाव की बड़ी परीक्षा दे चुके हैं, जिसमें नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायतों के चुनाव हुए थे। अब छावनी परिषद रूपी नगर निकायों में दलों का घमासान छिडे़गा।
इधर, छावनी परिषद अधिनियम में संशोधन की खबरें यदि सही साबित होती है, तो दलों को तैयारी के लिए ज्यादा वक्त मिल सकता है। 2006 में रक्षा मंत्रालय ने अधिनियम में संशोधन किया था और छावनी परिषद के सीईओ को काफी ताकतवर बना दिया था। इस संशोधन से पहले सीईओ को कैंट एक्जीक्यूटिव आॅफिसर बतौर जाना जाता था और बोर्ड में उसकी हैसियत सचिव स्तर की होती थी, मगर संशोधन के बाद उसे चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बना दिया गया था, जिसे बोर्ड के एक सदस्य के तौर पर मान्यता दी। तब से सीईओ को बोर्ड के फैसलों में भागीदार बनाया गया है, उसे वोट का अधिकार भी प्राप्त है।