उत्तराखंडः 1879 में हरिद्वार कुंभ के समय हैजा फैलने पर भी हुआ था लॉक डाउन

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पुरोला
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लॉक डाउन का फरमान देवभूमि के लोगों के लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पहले 1879 में हरिद्वार कुंभ के समय व्याप्त गंदगी के कारण हैजा फैलने पर भी गढ़वाल के सहायक आयुक्त को लॉक डाउन का आदेश देना पड़ा था। उस समय हरिद्वार कुंभ में हैजा फैलने पर सहयात्री तक बीमार और मृतकों को छोड़ कर भागने लगे थे।
सन् 1879 में जब गढ़वाल के सहायक आयुक्त को यह जानकारी मिली तो उन्होंने अपने कर्मचारियों को सड़कों पर पड़े शवों का अंतिम संस्कार करने के आदेश दिए। गढ़वाल सहायक आयुक्त ने कुंभ में आये हुए यात्रियों को जहां हैं, वहीं रुकने का आदेश दिया। उस समय प्रशासन् ने गांव में दवाइयां और चिकित्सक भी भेजे थे। उस समय के लाॅकडाउन में भी एक गांव से दूसरे गांव जाने पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया गया था। जो कई दिनों तक प्रभावी रहा। उत्तराखंड मामलों के जानकार जय सिंह रावत को आशंका नजर आ रही है कि इस कोरोना महामारी संकट के चलते इस साल की चारधाम यात्रा खटाई में पड़ सकती है। साथ ही कोरोना का साया सन् 2021 के हरिद्वार महाकुंभ पर नही पड़ेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि अगर इस साल के अंत तक विश्व स्तर पर कोरोना का खतरा पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ तो शायद भारत सरकार मौजूदा हालात से सबक लेकर सन् 2021 के महाकुंभ के आयोजन की अनुमति ही देने से इंकार न कर दे। क्योंकि इस तरह की घटनाओं के अतीत में झांकें तो पता चलता है कि हरिद्वार कुंभ के दौरान जब भी हैजा फैला, उसका विस्तार देश के अन्य हिस्सों में भी हुआ और साथ ही गढ़वाल मंडल के लिए इस तरह की संक्रामक बीमारियां आमजन के लिए महामारक साबित हुईं।
– चारधाम यात्रा और अगले साल आयोजित होने वाले हरिद्वार कुंभ को लेकर लोग सशंकित
इतिहास पर नजर डालें तो गढ़वाल क्षेत्र में 1857, 1867 एवं 1879 में हैजा महामारी बनकर आया था, जिसने सैकड़ों लोगों को असमय मौत दी थी। अधिकांश रूप में हरिद्वार कुंभ के बाद कुंभ क्षेत्र में हुई भारी गंदगी ही हैजा फैलने का कारण बनी थीं। 1857 एवं 1879 का हैजा धार्मिक नगरी हरिद्वार से लेकर उत्तर भारत के आखिरी गांव माणा तक फैल गया था। इसके मूल में हरिद्वार कुंभ के बाद शुरू हुई चारधाम यात्रा में संक्रमित तीर्थयात्रियों के शामिल होने से हैजा नामक महामारी फैल गई थी। 1897 में हैजा की रोकथाम के लिए महामारी रोकथाम अधिनियम अस्तित्व में लाया गया। इसके आने के बाद सन् 1882 में फिर से फैले हैजे के दौरान तत्कालीन गढ़वाल मंडल आयुक्त ने सन् 1879 की तर्ज पर पुनः इलाके में लाॅक डाउन लागू करते हुए एक संक्रमण वाले जिले के लोगों के दूसरे जिले में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
इस बात का उल्लेख हिमालयन गजेटियर के अंक 3 में भी मिलता है, जिसमे ई.टी. एटकिन्सन ने उल्लेख किया है कि हैजे के दौरान गढ़वाल के चारधाम यात्रा मार्ग पर अगर कोई हैजा पीड़ित मर जाता था तो उसके सहयात्री उसके शव को वहीं सड़क पर छोड़कर आगे बढ़ जाते थे और सहयात्री की मौत को नियति का फरमान मान लेते थे। इसी प्रकार संक्रमित यात्रियों के सामान को ढोने वाले देवभूमि के पोर्टर यानी मालवाहक जब अपने गांव में जाते थे तो वे वहां भी संक्रमण फैला देते थे, जिस कारण पूरा का पूरा गांव ही संक्रमित हो जाता था। तब बड़ी संख्या में गांव के लोग मरते भी थे। उस समय स्वच्छता की तरफ लोगो का ध्यान नहीं होता था। किसी भी गांव में हैजा फैलने पर गांव के लोग बीमार को बिना इलाज के ही मरने के लिए जंगल मेंअकेला छोड़कर भाग भाग आते थे।
जो गांव में मर जाते थे, उन मृतकों को जलाया तक नहीं जाता था। शवों के सड़ने के कारण उसके विषाणु वातावरण में फैल जाते थे, जिससे हवा दूषित हो जाती थी और पेयजल भी प्रदूषित हो जाता था। जो आबादी में रह रहे लोगों के लिए जानलेवा साबित हो जाता था। उस समय महाकुंभ के साथ साथ चारधाम यात्रियों  द्वारा कई-कई दिनों का पकाया हुआ भोजन यानी बासी खाना खाने और प्रदूषित जल पीने के कारण भी हैजा जैसी महामारियां फैल जातीं थीं। सरकारी आंकड़ों पर नजर डालें तो सरकार के गजेटियर के मुताबिक हैजे की महामारी से गढ़वाल मंडल में वर्ष 1903 में 4017 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद हैजे की बीमारी से सन् 1904 में 188 , सन् 1906 में 3429 , सन् 1908 में 2924, सन् 1909 में 1736, सन् 1910 में 782 और सन् 1911 में 76 लोगों की मौत हुई थी।