हाईकोर्ट का आदेश, पूर्व मुख्यमंत्रियों से बाजार दर पर बंगलों का किराया वसूला जाए

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हाईकोर्ट ने उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधा देने वाले अधिनियम 2019 को असंवैधानिक घोषित किया है। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता डॉ कार्तिकेय हरि गुप्ता ने बताया कि न्यायालय ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन मानते हुए यह निर्णय दिया। कोर्ट ने कहा कि अधिनियम के प्रावधान  स्थापित नियमों का उल्लंघन करते हैं। न्यायालय ने अधिनियम को भारत के संविधान के अनुच्छेद 202 से 207 के उल्लंघन में भी पाया है। अब सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को बाजार मूल्य से किराए का भुगतान करना होगा।
कोर्ट ने कहा कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्रियों के रूप में उन्हें दी गई अन्य सभी सुविधाओं के लिए खर्च किए गए धन की गणना करने और उसकी वसूली  के लिए राज्य उत्तरदायी होगा। कोर्ट ने कहा है कि अधिनियम के प्रावधान शक्तियों को अलग करने के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं।  पूर्व मुख्यमंत्रियों के रूप में दी गई सभी सुविधाओं के लिए खर्च किए गए धन की गणना करने के लिए भी सरकार को उत्तरदायी बनाया है। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन व न्यायमूर्ति आरसी खुल्बे की खंडपीठ ने 23 मार्च को मामले में सभी पक्षकारों को सुनने के बाद निर्णय सुरक्षित रख लिया था, जिसके बाद आज निर्णय सुनाया गया है।
मामले के अनुसार देहरादून की रूरल लिटिगेशन संस्था ने राज्य सरकार के उस अध्यादेश को जनहित याचिका के माध्यम से चुनौती दी थी, जिसके द्वारा पूर्व मुख्यमंत्रियों के किराए को बाजार रेट के आधार पर भुगतान करने में राज्य सरकार ने छूट दे दी गई थी। याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि सभी पूर्व सीएम पर करीब 15 करोड़ रुपये बकाया है। इसके अलावा किराया करीब पौने तीन करोड़ है। इसकी कोर्ट ने छह माह में वसूली के आदेश पिछले वर्ष दिए थे। पिछले दिनों त्रिवेन्द्र सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को भविष्य में दी जाने वाली सुविधाओं से हाथ पीछे खींच लिए। हालांकि उन पर जो बकाया शेष था, वह भी माफ कर दिया जाएगा। रूलक सामाजिक संस्था के चेयर पर्सन अवधेश कौशल द्वारा हाईकोर्ट में पूर्व मुख्यमंत्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं के खिलाफ एक जनहित याचिका डाली गई थी। इसमें हाईकोर्ट में इन सुविधाओं पर तत्काल रोक लगाने और पूर्व मुख्यमंत्रियों से अब तक का बकाया वसूलने के आदेश जारी किए थे। इस फैसले के खिलाफ पूर्व सीएम व महारोष्ट्र के गवर्नर भगत सिंह कोश्यारी और विजय बहुगुणा हाईकोर्ट चले गए थे किंतु हाईकोर्ट ने उनकी नहीं सुनी और उन्हें पुराना बकाया चुकाने का आदेश जारी रखा। यहां तक कि जब भगत सिंह कोश्यारी ने बकाया चुकाने की हैसियत न होने की बात कही तो फिर कोर्ट ने चेतावनी दी थी कि क्यों ना आपकी संपत्ति की जांच करा ली जाए ।
हाईकोर्ट में जब सरकार तथ्यों और तर्कों के आधार पर हार गई तो फिर सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने राजनीतिक गुरु भगत सिंह कोशियारी के लिए सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों का बकाया माफ करने और सुविधाएं जारी रखने के लिए अध्यादेश ले आए। इस बात को इसलिए भी बल मिलता है कि भगत सिंह कोश्यारी के अलावा बाकी सब ने कोर्ट में अथवा कोर्ट से पहले बकाया भरने की सहमति दे दी थी। कैबिनेट में गुपचुप निर्णय करके अध्यादेश को मंजूरी के लिए राजभवन भेज दिया गया था। जब यह बात खुली तो चौतरफा विरोध शुरू हो गया। इसके बाद सरकार ने यू-टर्न लेते हुए राज्यपाल के यहां गया हुआ अध्यादेश वापस मंगाया तथा इसमें पूर्व मुख्यमंत्रियों को दी गई सुविधाएं मात्र 31 मार्च 2019 तक जारी रखी जाने का प्रावधान जोड़ दिया।
पूर्व सीएम को सुविधाएं देने का राज्य में कोई नियम ही नहीं
उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला समेत अन्य सुविधाएं देने के मामले में सरकार राज्य का एक्ट बनाना ही भूल गई। सरकार ने उत्तर प्रदेश का एक्ट लागू करना स्वीकार किया लेकिन उसे संशोधित नहीं किया। यहां तक की पिछले साल कोर्ट में दिए गए हलफनामे में लागू एक्ट में लखनऊ का उल्लेख कर दिया, जबकि उत्तर प्रदेश के अधिनियम में साफ तौर पर अंकित किया गया था कि सुविधा सिर्फ लखनऊ में दी जा सकती है। अंतत: राज्य सरकार को यह स्वीकार करना पड़ा कि उत्तराखंड में इस संबंध में कोई अधिनियम प्रभावी नहीं है।
जानिए क्‍या है नियम
दरअसल, 1981 में उत्तर प्रदेश में बने अधिनियम में साफ उल्लेख था कि मुख्यमंत्री, मंत्रियों को पद पर बने रहने तक सरकारी आवास मुफ्त मिलेगा। पद से हटने के 15 दिन में उन्हें आवास खाली करना होगा। 1997 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस नियम में बदलाव कर कहा कि अब पूर्व मुख्यमंत्रियों को आजीवन सरकारी आवास आवंटित किया जाएगा। एक्ट में यह भी उल्लेख था कि आवास सिर्फ लखनऊ में ही दिया जाएगा, बाहर नहीं। नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड बनने के बाद यह नियम यहां अप्रभावी हो गया। राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश के एक्ट को उत्तराखंड के लिए मोडिफाई तो नहीं किया, मगर कोर्ट में बताया कि सरकार ने 2004 में लोकसेवकों को प्रतिमाह एक हजार रुपये किराये पर आवास देने के रूल्स बनाए थे। इसमें कहा गया है कि ट्रांसफर होने के बाद अधिकतम तीन माह तक लोकसेवक आवंटित आवास में रह सकते हैं, फिर हर हाल में खाली करना होगा। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता कार्तिकेय हरिगुप्ता के अनुसार यह रूल्स सरकारी लोकसेवकों के लिए है, यह पूर्व मुख्यमंत्रियों पर लागू नहीं हो सकता।
बाजार दर में किसी ने जमा नहीं किया बकाया
भले ही पूर्व सीएम डॉ. निशंक व विजय बहुगुणा ने किराया जमा करने की बात कही हो, मगर यह किराया बाजार दर के हिसाब से नहीं जमा किया गया है। पिछले दिनों इस मामले में दाखिल हलफनामे में सरकार घिर गई थी। पहले शपथ पत्र में सरकार ने हाई कोर्ट को बताया कि राज्य कैबिनेट ने पूर्व मुख्यमंत्रियों पर बकाया माफ करने का निर्णय लिया है, जब याचिकाकर्ता के अधिवक्ता की दलील पर कोर्ट ने कैबिनेट निर्णय की प्रति मांगी तो पता चला कि कैबिनेट ने हाई कोर्ट से किराया माफ करने की प्रार्थना का उल्लेख किया था। इसके लिए सरकार ने गलती स्वीकारी।
यूपी के रूल्स को सुप्रीम कोर्ट ने ठहराया असंवैधानिक
सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में उत्तर प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवासीय व अन्य सुविधाएं देने के लिए 1997 में लागू अधिनियम को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था। अधिवक्ता कार्तिकेय हरिगुप्ता गुप्ता का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पूरे राज्य में लागू होता है। साथ ही सवाल उठाया कि सरकार ने हलफनामे में यह नहीं बताया कि पूर्व मुख्यमंत्रियों द्वारा जनहित में किए गए कार्य कैसे अमूल्य सेवा का हिस्सा बन गए। राज्य 48 हजार करोड़ के वित्तीय घाटे में है और तेल नहीं होने की वजह से एंबुलेंस खड़ी हैं, ऐसे में पूर्व सीएम से पूरी वसूली की जानी चाहिए।