उत्तराखंड : 10 मार्च को 10 मिथक तय करेंगे अगली सरकार का भविष्य

0
363
उत्तराखंड

उत्तराखंड को बने अभी 21 वर्ष हुए हैं और इस अवधि में चार विधानसभा चुनाव हुए हैं। इतना समय मिथकों और रिकॉर्डों के बनने-टूटने के लिए कम होता है। लेकिन यह भी कहा जाता है कि मिथक और रिकॉर्ड हमेशा कभी न कभी टूटने के लिए ही बनते हैं। बहरहाल आगामी 10 मार्च को राज्य के ऐसे ही 10 मिथक हैं, जो तय करेंगे कि अगले पांच वर्षों के लिए प्रदेश में किसकी सरकार बनेगी?

इनमें पहला है मुख्यमंत्री कोई चुनाव नहीं जीते- उत्तराखंड में राज्य बनने के बाद भगत सिंह कोश्यारी को छोड़कर सभी मुख्यमंत्री, बल्कि पिछले मुख्यमंत्री हरीश रावत दो सीटों से विधानसभा चुनाव हारते रहे हैं। यहां तक कि राज्य के कुछ मुख्यमंत्री तो आगे कोई चुनाव ही नहीं लड़े, जबकि हरीश रावत विधानसभा के बाद लोकसभा चुनाव भी हारे हैं और उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कोई जीत नसीब नहीं हुई है। निशंक जरूर इस मामले में बाद में लोकसभा चुनाव जीतकर मिथक तोड़ चुके हैं। जबकि एनडी तिवारी, भुवन चंद्र खंडूड़ी व विजय बहुगुणा बाद में कोई चुनाव नहीं लड़े।

दूसरा यह कि हमेशा हारते हैं शिक्षा मंत्री- उत्तराखंड के चारों विधानसभा चुनावों में राज्य के शिक्षा मंत्री-नरेंद्र सिंह भंडारी, मंत्री प्रसाद नैथानी और गोविंद सिंह बिष्ट चुनाव हारे हैं। अब अरविंद पांडे पर इस मिथक के टूटने या बरकरार रहने का दारोमदार है।

तीसरा यह कि हमेशा हारते हैं पेयजल मंत्री- यह मिथक भी मातबर सिंह कंडारी और प्रकाश पंत जैसे नेताओं की हार के साथ बना हुआ है। इस बार बिशन सिंह चुफाल पर इस मिथक के टूटने या बरकरार रहने का दारोमदार है।

चौथा हमेशा सत्ता में रहता है नैनीताल का विधायक- राज्य बनने से पूर्व से नैनीताल विधानसभा के हर विधायक सत्ता में रहे हैं। राज्य बनने के बाद भी उक्रांद के डॉ. नारायण सिंह जंतवाल, भाजपा के खड़क सिंह बोहरा, कांग्रेस की सरिता आर्य व भाजपा के संजीव आर्य सत्ता में रहे हैं। इसके अलावा हर बार नैनीताल सीट से विधायक बदलता रहा है। किसी भी विधायक को लगातार दूसरी बार और किसी भी पार्टी को लगातार दूसरी बार जीत नहीं मिली। ऐसी कई अन्य सीटें भी हैं।

पांचवां अभेद्य किले- राज्य बनने के बाद से कालाढुंगी, डीडीहाट, काशीपुर, यमकेश्वर, देहरादून कैंट और हरिद्वार शहर सीटों से हमेशा भाजपा के, जागेश्वर और चकराता से हमेशा कांग्रेस के उम्मीदवार या कई जगह एक ही उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे हैं। यानी यह सीटें एक ही पार्टी या उम्मीदवार के अभेद्य किले की तरह रही हैं। यह मिथक भी इस बार कसौटी पर कसा जाना बाकी है।

छठवां भाजपा कभी नहीं जीत पाई- कांग्रेस के किले बताई गई जागेश्वर व चकराता के अलावा भी पिथौरागढ़ की झूलाघाट सीट पर भाजपा पिछले चुनाव में मोदी की प्रचंड लहर के बावजूद नहीं जीत पाई। पहले चुनाव में यहां निर्दलीय गगन सिंह रजवार जीते और उसके बाद कांग्रेस के हरीश धामी और हरीश रावत विधायक रहे। भाजपा को आज भी यहां से जीत का इंतजार है।

सातवां यह कि गंगोत्री से जीतने वाली पार्टी की बनती है सरकार- यह मिथक देश की आजादी के बाद से हर चुनाव में बना हुआ है, और राज्य बनने के बाद भी नहीं टूटा है।

आठवां रानीखेत से हारने वाली पार्टी की बनती है सरकार- राज्य बनने के बाद से रानीखेत के विधायक को हमेशा विपक्ष में बैठना पड़ा है। यहां से जब भाजपा के टिकट पर अजय भट्ट विधायक बने तो कांग्रेस की और जब कांग्रेस के करन महरा विधायक बने तो भाजपा की सरकार बनी है।

नौवां यह कि हर 5 वर्ष में बदलती है राज्य में सरकार- राज्य बनने के बाद से राज्य में कभी भी एक पार्टी की लगातार दूसरी बार सरकार नहीं बनी है।

दसवां चुनाव से पूर्व भाजपा से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हुए डॉ. हरक सिंह रावत के नाम भी एक रिकॉर्ड था कि वह हर बार सीट बदलकर चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं, इस बार भाजपा के बाद कांग्रेस ने भी उन्हें टिकट नहीं दिया। अलबत्ता इस चुनाव में उनकी बहू अनुकृति गुसाईं की जीत-हार के साथ हरक पर अपना मिथक बचाने की परोक्ष जिम्मेदारी बनी हुई है।