पलायन के चलते यहां टूटती है परम्पराएं

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अल्मोडा, सल्ट, अमूमन महिलाएं न तो हल लगाती हैं ना ही डोली उठाती हैं। मगर पलायन की मार झेल रहा तोलबुधानी गांव में यह परंपरा बार-बार टूटती है। मगर अफसोस जनता के नुमाइंदों को यह सब नहीं दिखता। यही कोई 300 परिवार। मगर सब पलायन से बेजार। पुरुष नौकरी के लिए बाहर तो युवा रोजगार की खातिर बड़े शहरों में। कहने को आठ-दस बुजुर्ग घरों में हैं लेकिन बुढ़ापा उन्हें ठीक से चलने नहीं देता। इन हालात में सुख हो या दुख, घर ही नहीं गांव की बड़ी जिम्मेदारी जिवट महिलाओं के कंधों पर ही रहती है। बेशक ग्रामीण विकास का कड़वा सच उनकी चुनौती को पहाड़ सरीखा बना देता है। मगर बुलंद हौसले की ताजा तस्वीर व्यवस्था को आइना भी दिखाते हैं।

यहां बात हो रही है सल्ट ब्लॉक के तोलबुधानी गांव का, जहां आधी आबादी का राज बुजुर्ग पुरुषों व नन्हे मुन्नों के लिए बड़ा सहारा है। शुभ कार्य हो अथवा दुख तकलीफ। मेहनतकश महिलाएं बगैर थके सिर पर बोझ व कंधों पर जिम्मेदारी के भार को बखूबी पछाड़ती हैं।

राज्य बने 17 वर्ष बीत चुके पर तोलबुधानी गांव में सड़क तो छोडि़ए शिक्षा व चिकित्सा की तक मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। वर्ष 2014 में शहीद हरि सिंह के नाम पर रतखाल से सड़क की घोषणा हुई भी। मगर इन चार सालों में महज सर्वे ही किया जा सका है। बिते दिनों की बात है बुजुर्ग महिला का स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ गया। उसकी जिंदगी बचाने के लिए महिलाएं जुटी। रोगी को डोली पर बैठाया। कंधे पर डोली उठा करीब छह किमी लंबी पगडंडी पार कर उसे अस्पताल पहुंचाया तो जान बची। बुनियादी सुविधाओं का अभाव कहें, या तंत्र की अनदेखी।

वर्ष 1995 तक तोलबुधानी ग्राम पंचायत के तीनों राजस्व तोक झीझाकोट, भैसोड़ा व तोलबुधानी में 300 परिवारों के डेढ़ हजार सदस्यों से पूरा गांव आबाद था। बेरोजगारी, सड़क, शिक्षा आदि के अभाव में साल दर साल परिवारों का पलायन होता रहा। फिलहाल यहां 110 परिवारों के 300 सदस्य रह गए हैं। इनमें करीब 200 महिलाएं हैं जो पुरुषार्थ की गाथा लिख रहीं।

प्रधान हेमा देवी के अनुसार, “करीब 50 बच्चे व किशोर जबकि शेष पुरुष हैं, इनमें अधिकांश बुजुर्ग। पुरुषों के हाथ का काम भी हम महिलाएं अरसे से करती आ रही हैं, यह मजबूरी नहीं बल्कि जिम्मेदारी समझती हैं। लेकिन जनप्रतिनिधियों व जिम्मेदार अफसरों को भी पहाड़ की पीड़ा समझनी चाहिए। चार साल से सड़क नहीं बनी। लोनिवि के अधिकारियों से कई बार कह चुके लेकिन वन भूमि का रोड़ा बता पल्ला झाड़ लेते हैं। रोगियों को डोली पर अस्पताल तक ले जाना, महिलाओं की नियति बन चुका है। अपने लिए हम बच्चों की तरक्की नहीं रोक सकते, रोजगार के लिए बाहर निकलना ही पड़ेगा।”