चुनौती तो उत्तराखंड में हरीश रावत ही है

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बर्फ और गलन भरी ठंड से ठिठुर रहे इस पहाड़ी राज्य में उम्मीदवारों द्वारा परचा भरते ही चुनाव प्रचार सरगर्म हो रहा है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही फिलहाल बगावत से जूझते हुए भी एक-दूसरे पर राजनीतिक हमले से बाज नहीं आ रहे। कांग्रेस ने जहां पार्टी घोशणा पत्र से भी पहले मुख्यमंत्री हरीष रावत का संकल्प पत्र पेश करके चुनाव प्रचार में नई मिसाल पेश की है, वहीं भाजपा लगातार मुख्यमंत्री पर निशाना साधे हुए है। कांग्रेस के इस दाव से तिलमिला कर भाजपा रणनीति के तहत पूर्व मुख्यमंत्रियों से उन पर जुबानी हमले करवा रही है। रावत पर सबसे ज्यादा हमलावर विजय बहुगुणा तो हैं ही और अब भाजपा ने रमेश पोखरियाल निशंक से भी निशाना सधवा दिया है। इससे जाहिर है कि कांग्रेस के भीतर बुरी तरह तोड़-फोड़ कर लेने के बावजूद भाजपा द्वारा हरीष रावत को ही प्रमुख चुनौती माना जा रहा है।

कांग्रेस में तो पूरी चुनावी बिसात ही मुख्यमंत्री के अनुसार बिछाई गई है। प्रशांत किशोर ने रावत से सलाह मषविरे के बाद जो प्रचार अभियान बनाया है, उसकी परतें धीरे-धीरे खुल रही हैं जिससे जाहिर है कि भाजपा असमंजस में है। भाजपा ने चुनाव प्रचार का दूसरा हफ्ता बीतने के बावजूद राज्य में कोई अभिनव प्रचार शैली नहीं अपनाई है। हालांकि उम्मीदवारों की सूची सबसे पहले भाजपा ने ही 16 जनवरी को घोशित कर दी थी, लेकिन दर्जन भर कद्दावर बागी कांग्रेसियों को कमल छाप उम्मीदवार बना कर पार्टी अभी तक भीतरघात से ही जूझ रही है। अलबत्ता रोजाना कांग्रेस के कुछ पदाधिकारियों को जरूर भाजपा में शामिल कराते हुए मीडिया के सामने पेश करा दिया जाता है। तीन भाजपाई बागियों को पंजा छाप उम्मीदवार बना कर कांग्रेस ने मुंहतोड़ जवाब दे दिया। मातबर सिंह कंडारी को भी मीडिया के सामने कांग्रेस में शामिल करा लिया गया। बहरहाल सत्तारूढ़ दल में रावत के जलवे का ताजा उदाहरण धनौल्टी सीट पर पार्टी द्वारा अधिकृत घोशित उम्मीदवार मनमोहन सिंह मल्ला की जगह निर्दलीय प्रीतम पंवार को समर्थन दिया जाना है।

मनमोहन, मसूरी नगर पालिका के निर्वाचित अध्यक्ष हैं और पार्टी फैसले के खिलाफ डटे रहने का संकेत दे रहे हैं। प्रीतम पंवार पीडीएफ के उन विधायकों मे से हैं, जिन्होंने पहले विजय बहुगुणा और फिर हरीश रावत की अल्पमत सरकार को अपने समर्थन से पूरे पांच साल टिकाए रखा। हालांकि रावत के मुख्यमंत्री बनते ही कांग्रेस ने उनके समेत लगातार चार उपचुनाव जीत कर विधानसभा में अपने बूते बहुमत पा लिया था मगर मुख्यमंत्री ने पीडीएफ को सत्ता में बराबर हिस्सेदार बनाए रखा। पंवार को समर्थन देकर रावत ने राज्य के लोगों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस धोखेबाज नहीं है। यदि लोग उसका साथ देंगे तो बदले में पार्टी भी अपने वादे पूरे करने में कोताही नहीं बरतेगी।

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कांग्रेस द्वारा जारी रावत के संकल्प भी जनता में अपनी विष्वसनीयता मजबूत करने की कोषिष हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण, मजबूरन सरकारी जमीन पर बसे गरीब परिवारों को वहीं बसने का स्थाई अधिकार देने का वायदा है। इस संकल्प को कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रचारित पंधानमंत्री आवास योजना की काट के रूप् में पेष किया है। गौरतलब है कि मध्यप्रदेष में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह 1985 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस को इसी रणनीति से जिता चुके हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उन्होंने सरकारी जमीन पर बसे गरीबों को नहीं उजाड़े जाने का फरमान चुनाव से पहले ही जारी कर दिया था। इसके अलावा महिलाओं को सरकारी नौकरी में 33 फीसद आरक्षण भी कांग्रेस का आजमाया हुआ दाव है। पार्टी इसे भी मध्यप्रदेश में आजमा कर 1990 में विधानसभा चुनाव जीत चुकी है। बेरोजगार युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देना भी बेहद लोक लुभावन घोशणा है जिसने भाजपा को सुरक्षात्मक मुद्रा में कर दिया है। यह मुद्दा हालांकि सरासर विवादास्पद है, क्योंकि इस पहाड़ी राज्य में संगठित क्षेत्र के रोजगार तो मुट्ठी भर ही हैं, इसलिए बेरोजगारी तय करना सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है। साथ ही सरकारी पैसे के दुरूपयोग की गुंजाइश भी इस घोषणा में अत्यधिक है। बहरहाल रावत ने फिलहाल मास्टर स्ट्रोक तो जड़ ही दिया है।

इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के स्थाई और मजबूत उपाय करने की मंशा भी खासकर पहाड़ों पर बसे मतदाताओं के लिए बेहद आकर्शक साबित हो सकती है। केदारनाथ आपदा ने ये सिद्ध कर दिया कि प्रदेष में आपदा दरअसल स्थानीय नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन संबंधी कारणों से आ रही हैं। साथ ही इन आपदा के आगे-आगे और बढ़ने तथा विनाषकारी सिद्ध होने की आशंका प्रबल ही होने वाली है। ऐसे में आपदा की जद में आने वाले मतदाताओं के लिए यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि सत्तारूढ़ दल अपनी अगली पारी में इस समस्या का ठोस उपाय करने की मंषा जताए। वैसे भी रावत ने करीब दो साल के भीतर केदारनाथ पुनर्निर्माण और पुनर्वास की चुनौती से बखूबी निपट कर चार धाम यात्रा को फिर पटरी पर लाने की मिसाल से लोगों को प्रभावित तो किया ही है।

इस संकल्प पत्र की खूबी यह है कि इसके मुद्दे लोगों के मर्म को छूने वाले हैं, जिनका जवाब देना भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी मुशकिल होगा। इसकी वजह ये है कि मोदी का सारा जोर तो सबसीडी खत्म करने पर है। उनकी घोशित नीति है कि लोगों के लिए काम के अवसर हों तो उन्हें सरकार को नकद रियायतें नहीं देनी पड़ेंगी। यह बात दीगर है कि मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार करीब पौने तीन साल में नए, स्थाई रोजगारों को छोड़ भी दें तो रोजगार के मौसमी अवसरों तक को पटरी पर नहीं ला पाई है। रही-सही कसर नोट बदली ने पूरी कर दी। अब देखना यही है कि अपनी चाल, चरित्र और चेहरा तक दाव पर लगा चुकी भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी लाखामंडल वाले इस राज्य में चुनाव की अग्निपरीक्षा से कितनी सुर्खरू होकर निकल पाएगी।