चण्ड-मुण्ड को मारने के कारण पड़ा माता का नाम चण्डी

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तीर्थनगरी हरिद्वार को गंगा के साथ मठ-मंदिरों की नगरी भी कहा जाता है। यहां अनेक पौराणिक व नवनिर्मित मंदिरों में बड़ी संख्या है। जहां नवनिर्मित मंदिर अपनी आधुनिक कला के लिए विख्यात है। वहीं, पौराणिक अपने इतिहास व मनोकामना पूर्ति के लिए विख्यात हैं। ऐसे ही पौराणिक मंदिरों में एक है चण्डी देवी मंदिर।

चण्डी देवी मंदिर को चण्डिका देवी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। चण्डी देवी मंदिर हर की पौडी से करीब तीन किमी की दूरी पर है। यह हिमालय के दक्षिणी पर्वत श्रृंखला के पूर्वी शिखर पर नील पर्वत की चोटी पर स्थित है। कहा जाता है कि मंदिर में चण्डी देवी की मूर्ति हिन्दूओं के महान संत शंकरचार्य ने आठवीं शताब्दी में स्थापित की थी। यह मंदिर हरिद्वार के पांच तीर्थ स्थलों में से एक है। इस मंदिर को कश्मीर के एक राजा सुचत सिंह द्वारा 1929 में पुनः बनवाया गया था।

मंदिर में पैदल व रोपवे के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। चण्डी देवी के संबंध में पौराणिक कथाओं के अनुसार शुंभ और निशुंभ, दो राक्षसों ने इन्द्र देवता के राज्य स्वर्ग पर कब्जा कर लिया था। इन्द्र ने देवी पार्वती से प्रार्थना कि तब देवी पार्वती ने चण्डिका का रूप धारण किया। राक्षस शुंभ ने देवी कि सुन्दरता से आकर्षित होकर देवी से विवाह करने की कामना की परन्तु देवी ने मना कर दिया। तब राक्षस शुंभ ने देवी से लड़ाई के लिए अपने दो प्रमुख राक्षस चंद और मुण्ड को भेजा।

देवी चण्डिका के हाथों दोनों राक्षस चण्ड और मुण्ड को मार गिराया। चण्ड और मुण्ड के मरने के बाद शुंभ और निशुंभ दोनों ने मिलकर चण्डी देवी से युद्ध किया परन्तु दोनों ही देवी के हाथों मारे गए थे। युद्ध के बाद देवी ने थोड़ी देर नील पर्वत पर विश्राम किया था।

बाद में इस जगह पर चण्डी देवी का मंदिर बनाया गया। इसके अलावा, पर्वत श्रृंखला दो चोटियों को शुंभ और निशुंभ कहा जाता है। चण्डव मुण्ड को मारने के कारण ही मंदिर में विराजमान माता को मां चण्डी देवी कहा गया। यहां प्रतिदिन श्रद्धालुओं की भारी भीड़ रहती है। नवरात्र में श्रद्धालुओं का यहां तांता लगा रहता है। नवरात्र में चतुर्दशी तिथिको यहां विशाल मेला भरता है, जिसे चण्डी चौदस मेला कहा जाता है।