सड़क को तरस रहे हैं सुदूर क्षेत्रों के ग्रामीण

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निशंक
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(देहरादून) उत्तराखंड वन भूमि की अधिकता है जहां प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 53 हजार 483 वर्ग किलोमीटर है। वहीं 38 हजार किलोमीटर से अधिक वन भूमि है, जिसके कारण प्रदेश में सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सड़कें ले जाना टेढ़ी खीर है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना भी अपना मूर्त रूप धारण नहीं कर पा रही है। आज भी लोगों को सड़कों से महरूम होना पड़ रहा है। इसके पीछे वन अधिनियम विशेष रूप से प्रभावी है, जिसके कारण विकास के कामों को भी अड़ंगा लग रहा है और गांवों तक सड़कें नहीं पहुंच पा रही है। बिजली, पानी और सड़क अब लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं में शामिल हैं।
पिछले दिनों पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने पलायन रोकने में एक विशेष पहल की। इसके तहत उन्होंने भीमताल क्षेत्र के एक गांव के लोगों के लिए मोबाइल संपर्क का प्रयास किया और आज वह गांव पलायन की सूची से हट गया है। कोश्यारी का कहना है कि जमीन की उपलब्धता नहीं होने के कारण वहां टावर नहीं लग सका था लेकिन उन्होंने राजस्व विभाग की मदद से 90 साल के लिए लीज पर एक जमीन ली और वहां मोबाइल टावर लगवाने का प्रयास किया है। जिसके कारण इस क्षेत्र में पलायन रोकने में एक महत्वपूर्ण पहल हुई है और गांव के लोग अब पलायन नहीं करेंगे।
प्रदेश में 136 ऐसी सड़कें हैं जो वन भूमि हस्तातंरण नहीं होने के कारण रुकी हुई हैं, इनके प्रस्ताव सर्वेक्षण निदेशालय को भेजे गए हैं। इसी प्रकार गढ़वाल और कुमाऊं मंडल में 290 सड़कें अब तक निर्माण की प्रतीक्षा में है। जिनमें से केवल 22 को स्वीकृति मिली है, जबकि 145 सड़कों को सैद्धांतिक स्वीकृति मिली है व्यवहारिक नहीं है। वन भूमि अधिनियम सड़कों तथा विकास कार्यों में आज बड़ा अड़ंगा बना हुआ है।