पलायन एक चिंतन: भराड्सर ताल, भाग-4

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दिनांक-13-10-2017

इस ट्रेकिंग के दौरान बीते दिनों की सुबह से कुछ अलग ये सुबह थी। आज “हिमालय दिग्दर्शन” की पदयात्रा का आखिरी दिन था। बहुत दिनों से उच्च हिमालयी क्षेत्र में पानी की किल्लत के चलते ढ़ंग से मुंह तक नहीं धो सके थे। इसलिए नजदीक में बह रहे पानी के छोटे झरने पर अच्छे ढंग से सेविंग के साथ देह को धोया गया। सुबह नाश्ते/भोजन के रूप में तैयार खिचड़ी को अंतिम वन प्रसाद के रूप में बड़े चाव के साथ खाया गया।

सफर में हमारे साथ चल रहे पोटर और गाइड को तो मोरी बाजार तक हमारे साथ चलना था, लेकिन खच्चरों को आज भितरी गाँव से वापस इसी रास्ते से लौटना था। अतः इस कठिन सफर के मध्यनजर नेत्रपाल यादव जी द्वारा एक स्लीपिंग बैग, रतन भाई ने एक टार्च और मैंने रैनकोट के साथ बच गये प्रयाप्त भूने हुऐ चने और किशमिश किर्तम मामटी को भविष्य की शुभकामनाओं सहित भेंट स्वरूप दिये।

पिठु फिर पीठ पर कसा गया और ढ़लान दार पहाड़ी रास्ते पर हमारा कारवां आगे बढ़ा। जंगल का वातावरण और घिसा हुआ रास्ता आस पास गाँव की नजदीकी का एहसास करा रहा था। कुछ जगह पर तो जंगली सूंअरों के झुंडों द्वारा खुर्द-पुर्द जमीन दिख रही थी। रास्ते पहले से थोड़ा ठीक और बरसाती नालों पर जंगलात के लकड़ी के बने नये पुल नजर आ रहे थे।

चलते-चलते मुकेश बहुगुणा द्वारा गांधी दर्शन पर शानदार परिचर्चा और वर्तमान राजनीतिक दृष्टिकोण काबिले तारीफ था।वायुसेना में 20 साल की नौकरी के दौरान हिमालयी क्षेत्रों में घासाहारी से मांसाहारी बने उनके जोखिम भरे अनुभव शानदार थे। गपशप में मशगूल अचानक हमारे सामने से एक पालतू मृत पशु से गिद्धों का एक बड़ा झुंड उड़ा। पूरे राष्ट्रीय गोविंद वन पशु बिहार के इस आरक्षित वन क्षेत्र के भ्रमण में हमें आश्चर्य जनक रूप में ये पहले वन्य जीव दिखाई दिये। थोड़ा आगे बढ़े तो अचानक एक बड़ा बरसाती नाला हमारे रास्ते को निगला हुआ नजर आया। उसे पार करना थोड़ा कठिन था लेकिन पहले अरविंद धस्माना फिर मैंने और तनु जोशी तथा गणेश काला ने उसे पार किया। टीम लीडर रतन असवाल ने जंगल में बिना कोई जोखिम लिये ऊपर बने रास्ते से चलने की हिदायत दी।

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पूरे जंगल में एक बात जो हम देख और समझ पा रहे था वो ये थी की जगह-जगह टूटे पेड़ जहाँ-तहाँ पड़े सड़ रहे थे। इन पेड़ों को अगर यहाँ के ग्रामीणों को घर बनाने के लिये दे दिया जाये तो इस वन संपदा का सदुपयोग हो जाता। लेकिन जंगल का तो काला कानून ठैरा सड़ जाये मगर जंगल का माल जंगल में ही रहना चाहिए। यही कारण है जो ग्रामीण अपनी इस जरूरत के लिये और तरीके अपनाने को मजबूर हैं।

उतरती ढलान भरे रास्ते से अब मिशरी गाँव और भीतरी गांव की छानीयां नजर आने लगी। हरे-भरे पहाड़ी खेतों-बगीचों में काम करते लोग। जंगल को चरने के लिये जाते पालतू पशुओं के झुंड पहाड़ी ग्रामीण समाज की अदभुत छट्टा पेश कर रहे थे। हर कोई रास्ते का अंजान ग्रामीण भी प्रणाम कर हमारा अभिवादन कर रहा था। खेती-बाड़ी के औजारों से सुसज्जित मेरे इस पहाड़ के ये अन्नदाता अपने महान उपक्रम पर गतिशील थे। खामोश जंगल से निकल इस मानवीय शौरगुल का एहसास बार-बार मोबाइल नेटवर्क की आस जगा रहा थे लेकिन अंबानी के जीयो से लेकर भारत सरकार के बीएसनएल के सिग्नल तक यहाँ से नदारद थे। देश में मेक इन इंडिया से लेकर बुलेट ट्रेन तक दावों से कोसों दूर हम बिना बिजली के सुदूर पहाड़ के इस ग्रामीण परिवेश में भीतरी गाँव की तरफ बढ़ रहे थे।

सबको बराबर समझने के लिये मैं हर बार हमराही बदल बदल कर चल रहा था। मैं अब भाई अरविंद धस्माना की मीठी बातचीत के सुनते हुए चल रहा था। भीतरी गांव से ठीक पहले राज्य के वरिष्ठ नौकरशाहों के सेब बगानों में बने हिमांचल शैली के ताजा-तरीन बंगले भी इस पिछड़े क्षेत्र पर हो रहे अतिक्रमण की दुहाई दे रहे थे। भितरी गाँव पंहुचे तो ग्रामीण बूढ़ी औरतों ने हम से बुखार की दवा मांगी जो हमारे पास नहीं थी तो उन्होंने फिर कान दर्द और पेट दर्द की दवा मांगी। फिर धिरे-धिरे मामला समझ आया की ये बदहाल पड़ी स्वास्थ्य व्यवस्था के चलते यहाँ आने वाले पर्यटकों से दवाओं के मिलने का सहारा रखते है जो बुरे वक्त में इनके काम आ जाती है।

अंततोगत्वा सड़क पर पंहुचे तो एक छोर पर सामान और अन्य साथियों के साथ रतन असवाल नजर आये। उन्होंने मुझे फोन द्वारा मोरी से गाड़ी मंगवाने के लिये कहा। दोपहर के लगभग एक बजे तक गाँव की सभी गाड़ीयां मोरी जा चुकी थी जो शाम ढ़लते ही वापस गांव लौटती थी। हमारे फोन पर बीएसनएल का कनेक्शन होने बावजूद नेटवर्क नही आ रहा था, तो मुकेश बहुगुणा ने मुझे हिदायत दी की थोड़ी दूर पर स्थित सरकारी स्कूल में जाकर वहां अध्यापकों से इस बाबत कुछ मदद ले ली जाये। भारी थकान के बावजूद वस्तु स्थिति के मध्यनजर मैं तुरंत उनके साथ स्कूल के लिये चल पड़ा। ऐसे दूरस्थ क्षेत्र मे सरकारी स्कूल विदेश में फंसे आदमी के लिये भारतीय दूतावास से कम नहीं होते। अंजान जगह में यह काफी राहत देय होता है।वहां पंहुच कर एक अध्यापक के फोन से मैंने मोरी से अपने स्थानीय साथी अमर सिंह से तत्काल दो गाड़ीयां भेजने का अनुरोध किया। पांच मिनट बाद फोन पर अमर सिंह ने दो यूटीलटी टैक्सीयां भेजने की सूचना भेजी तो राहत महसूस हुई। लगे हाथ अपने-अपने घर पर फोन कर खैरियत जान हम वापस अन्य साथियों के पास लौट गये।

टैक्सीयों के आने में लगभग दो घंटे का समय बाकी था। हम गाँव की सड़क के एक छोर पर गाड़ी की प्रतीक्षारत मुसाफ़िरों की तरह बैठे थे। मैं इस गाँव में पहले भी एक बार रतन असवाल और सुभाष तराण के साथ आया था। हम नौजवान साथी सकलचंद के घर रूके थे जो आज गांव में नहीं था।यहाँ के बदइंतजाम हालात पर हमने तब भी काफी कुछ लिखा था। रतन भाई ने तो शासन में लड़-झगड़ कर यहाँ लाइट पंहुचाने के लिये जोर दिया था। अब यहाँ आये हैं तो गाँव में बिजली के कुछ नये खंभे गड़े दिखाई दिये हैं। इन खंबों पार तारों का झूलना और बिजली दौड़ना अभी दूर की कौड़ी साबित जान पड़ता था। जबकि ठीक सामने नदी के उस पार हिमांचल के गाँव रात को बिजली की रोशनी से चमचमाते नजर आते थे। खैर “किस की माँ को मौसी बोलें” वाले एहसास से पहाड़ के ये गाँव वाफिक थे।

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थोड़ी देर बाद स्कूल के एक अध्यापक कृष्ण कुमार शाह हमारे पास आये और घर में चलकर चाय-पानी पीने का अनुरोध किया। उनका घर गाँव के सबसे ऊपरी छोर पर था और सब बहुत थके थे तो सब ने ठीक है, ठीक है, कोई बात नहीं जैसे जवाबों से ससम्मान मना करा दिया। अंततः मैंने और मुकेश बहुगुणा तथा अरविंद धस्माना ने गुरूजी के साथ चलने का फैसला किया।

भीतरी इस इलाके का काफी बड़ा गाँव है। लोक मान्यताओं के अनुसार ये यौद्धाओं का गाँव है, जिन्हें स्थानीय भाषा में खूंद कहा जाता है। विश्व के महान भारतीय रेसलर द ग्रेट खली के पूर्वज भी कभी इसी गाँव से हिमांचल में बस गये थे। जो आज भी इसी गाँव के अराध्य ग्राम देवता सैड़कुडिये महाराज को कुल देवता के रूप में पूजते हैं। गाँव के भवन पत्थर और लकड़ी की नकाशेदार शैली की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने थे। कृषी एवं पशु-पालन, के साथ भेड़ की ऊन के कुछ बुनकर परिवार भी थे। जिन्हें यहाँ किनौर हिमांचल से बसे होने कारण किनौरी कहा जाता है।

सरकार की तमाम दुश्वारियों के बावजूद ये गाँव शून्य पलायन वाला गाँव था। यही एक कारण “पलायन एक चिंतन” दल के हमारे साथियों को बार-बार शोध हेतु टौंस और यमुनाघाटी के इन गाँवों में खींच लाता है। हम यहाँ आकर ये समझने की कोशिश करते है की आखिर वो कौन सी ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था है जो यहाँ से शून्य पलायन का मुख्य कारण है। इस समाधान की तरफ हमने काफी कुछ ठोस कारणों के दस्तावेज तैयार किये हैं जो हमारे इस राज्य के पलायन से बंजर हो चुके गांवों के लिये भविष्य में संजीवनी साबित होगें। हमारी लोक-कला-संस्कृति से फलीभूत यह गाँव हमेशा हरा-भरा रहे, यही हमारी ईश्वर से कामना रहेगी।

काफी ऊपर गाँव में मंदिर के पास एक दुकान से हमने नकली मैगी के 10-15 पैकट लेकर गुरूजी के कमरे में गाँव वालों के सहयोग से बड़े पतीले में मैगी तैयार करायी। गुरूजी के कमरे में सुसज्जित देवदार के पलंग पर पैर लंबे कर हमने थकान मिटाते हुऐ चाय की चुस्कियों का आनंद उठाया। गुरूजी से परिचय बढ़ाया तो पता चला वे उत्तरकाशी के रहने वाले तथा मेरे बचपन के सहपाठी दोस्त रमेश शाह के बड़े भाई हैं। काफ़ी देर होने के कारण हमारा गाइड सुरेन्द्र हमें ढूंढता हुआ वहीं पंहुच गया। उसने बताया की रतन भाई ने जल्दी नीचे सड़क पर बुलाया है। हम भी सबके लिये फटाफट मैगी बाल्टी में भर सड़क की तरफ तेजी से चल पड़े।

आसपास के घरों से थालीयां मंगवाकर और पत्यूड़ के पत्तों पर सभी साथियों को मैगी का भंडारा खिला कर सबका साधुवाद प्राप्त किया। लगभग शाम के 4 बज चुके थे लेकिन हमारी गाड़ीयों का कोई पता नहीं था। अंततः हमने बारिश की संभावना के मध्यनजर अभी अभी गाँव में पंहुची एक यूटीलीटी गाड़ी को मोरी जाने के लिये बुक किया। सारा सामान पीछे डालकर गाड़ी की छत और अंदर सीटों पर जगह बना ली। लगभग 6 किलो मीटर चलने के बाद हमें हमारी दोनों यूटीलीटी गाड़ीयां सरपट चढ़ाई पर चढ़ती नजर आयी। जिन्हें रूकवाकर हमने सारा सामान उनमें शिफ्ट करते हुऐ नैटवाड़ से मोरी पंहुच गये। अश्वमार्ग से भी बदहाल सड़क पर मोरी आते आते रात हो गयी थी।

लोक निर्माण विभाग के गेस्ट हाऊस से हमने अपने इस पैदल अभियान के गाइड सुरेन्द्र और पोटर जुनैल को नियमित भुगतान कर विदाई ली। वहां पहले से खड़े मुकेश बहुगुणा के नीजी वाहन तथा एक और अन्य लोकल टैक्सी से हम सब कुकरेड़ा-तलवाड गाँव के लिये निकल पड़े।

त्यूणी के निकट टौंस नदी के ठीक किनारे बसे इस तलवाड़ गाँव में जब हम पंहुचे तो “पलायन एक चिंतन” के साथी और ग्राम प्रधान चत्तर सिंह ने स्थानीय वादय यंत्रों से गांव वासियों के साथ हमारा खूब गर्मजोशी से स्वागत किया। यहां पहले से मौजूद हमारे अजीज साथी अखिलेश डिमरी और विनय केडी, समय साक्ष्य प्रकाशन के प्रवीण भट्ट से मिलकर खुशी का ठिकाना ना रहा। ये सभी साथी आज ही देहरादून से यहां कल आयोजित होने वाली गोष्ठी में शामिल होने को पंहुचे थे।

मैने रात को गर्म पानी से नहाकर खुद को तरोतजा किया। सभी घासखारीयों को साग-सब्जी और मांसभक्षीयों को मीट-भात खिलाया गया। यात्रा के अनुभवों पर बातचीत करते हुऐ हम सब गर्म और नर्म बिस्तर के अंदर दुबक कर गहरी नींद में डूब गये।