अब विश्व धरोहर “रम्माण“ को रोजगार से जोड़ने की कवायद शुरू

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2001

गोपेश्वर। सब कुछ ठीक ठाक रहा तो विश्व सांस्कृतिक धरोहर “रम्माण“ उत्सव को चमोली जिले के जोशीमठ विकास खंड के सलुड डुंग्रा समेत आसपास के अन्य गांव के बेरोजगार युवाओं और गरीब परिवार के लोगो की आजीविका से जोड़ने की सार्थक पहल शुरू की जा रही है। रम्माण के शिल्पी डा. कुशल सिंह भंडारी ने इस प्रोजेक्ट को तैयार किया है ताकि रम्माण सिर्फ हर वर्ष आयोजित होने वाले मेले तक की सीमित न रहे बल्कि गांव के बेरोजगार और गरीब तबक़े के लोगो की आजीविका से जोडा जा सके।
रम्माण मेले के समन्वयक डा. कुशल सिंह भंडारी ने बताया कि रम्माण को आजीविका से जोडने के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र नई दिल्ली के सहयोग व अथक प्रयासों एक प्रोजेक्ट तैयार किया गया है। इस प्रोजेक्ट से सलुड डुंग्रा सहित अन्य गांवों के वे लोग जो रम्माण इवेंट से अपनी आजीविका चलाना चाहते है उनको हर संभव सहायता मिलेगी ताकि इस कला और परंपरा को जीवित रखने के साथ इससे अपनी रोज़ी रोटी भी चला सकेंगे। जिसमे इंदिरा गांधी कला केंद्र सहयोग करेगा।
गौरतलब है की उत्तराखंड के चमोली जिले के सलूड़ डुंग्रा गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल माह में रम्माण मेला का आयोजित होता है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोसी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध आयोजन होते हैं। अंतिम दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है। रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण यह सम्पूर्ण आयोजन रम्माण के नाम से जाना जाता है। इन प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
रम्माण उत्सव में जिस नृत्य शैली का उपयोग किया जाता है, वह मुखौटा नृत्य शैली है। इस में नृत्यक अपने मुख में मुखौटा पहनता है, फिर नृत्यकला का प्रदर्शन करते है। इसमें कोई भी संवाद पात्रों के बीच नहीं होता। पूरी रम्माण में 18 मुखौटों, 18 तालों, 12 जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है।
सलूड़-डुंग्रा से विश्ब धरोहर तक का सफर
रम्माण कौथिग (उत्सव) वर्ष 2007 तक सलूड़ तक ही सीमित था। लेकिन गांव के ही शिक्षक डॉ. कुशल सिंह भंडारी की मेहनत का नतीजा था, कि आज रम्माण को विश्व धरोहर में स्थान मिला हुआ है। डॉ. भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विवि लोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आयी कि कला केंद्र की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोग इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया। इस टीम ने दिल्ली में भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं। बाद में इसे भारत सरकार ने यूनेस्को भेज दिया। दो अक्टूबर 2009 को यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया। इस सफलता का श्रेय गढ़वाल विश्वद्यिालय के प्रोफेसर दाताराम पुरोहित, प्रसिद्ध छायाकार अरविंद मुद्गिल, रम्माण लोकजागर गायक थान सिंह नेगी व डॉ. कुशल सिंह भंडारी को जाता है। हर वर्ष आयोजित होने वाला रम्माण का शुभ मुहूर्त बैसाखी पर निकाला जाता है।