कागजों पर लगे पौधे, धरातल पर उगे नहीं

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    प्रदेश में बीते कुछ दिनों से पौधारोपण की होड़ सी लगी है। लग रहा है कि अब आने वाले दिनों में प्रदेश की आबोहवा तरो-ताजा रहेगी, लेकिन बीते कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो यह सब महज आडंबर लगेगा। पर्यावरण प्रेम के नाम पर केवल पौधों को रोपा जाता है। इसके बाद उनकी देखरेख का समय किसी के पास नहीं, जबकि वन क्षेत्रों में रोपित पौधों की तीन साल तक देखभाल का प्रावधान है। चार सालों के आंकड़े ही देखें तो हर साल औसतन 1.71 करोड़ पौधों का रोपण किया गया। इनमें से कितने जीवित हैं, इसका वन विभाग के पास कोई जवाब नहीं है। ऐसे में प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक ठोस नीति बनाए जाने की जरूरत है ताकि प्रदेश हरीभरी वादियों से लहलहाता रहे।

    पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधारोपण के आंकड़ों की बात करें तो एक अनुमान के मुताबिक हर साल डेढ़ से दो करोड़ पौधों का रोपण किया जाता है। हर बार इसी प्रकार से अभियानों का आगाज और अंजाम होता है। कुछ ऐसे ही दावे वन महकमा भी करता रहा है। पिछले 17 साल से यह सिलसिला चल रहा है। बावजूद इसके वनों का क्षेत्रफल 46 फीसद से आगे नहीं बढ़ पाया है। यह है 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड का हाल। जिस हिसाब से राज्यभर में वर्षाकाल में पौधरोपण हो रहा है, उसमें से आधा फीसद भी पनप नहीं रह पा रहे। इससे साफ जाहिर है कि सिस्टम की नीति और नीयत में कहीं न कहीं खोट है। पर्यावरण प्रेमी भी सोशल मीडिया के लिए पौधे लगा रहे है। यदि ऐसा नहीं होता तो कागजों की जगह धरातल पर जंगल खूब पनपे होते।
    विशेषज्ञों की मानें तो शासन व वन विभाग को ठोस कार्य योजना तैयार कर स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप पौधों का रोपण करना चाहिए। साथ ही कुछ सालों तक इनकी देखभाल सुनिश्चित करनी होगी। तब जाकर ही कुछ सकारात्मक नतीजे सामने आ पाएंगे। राज्य में गुजरे चार सालों के आंकड़े ही देखें तो हर साल औसतन 1.71 करोड़ पौधों का रोपण किया गया। इनमें से कितने जीवित हैं, इसका महकमे के पास कोई जवाब नहीं है। यह स्थिति तब है, जबकि वन क्षेत्रों में रोपित पौधों की तीन साल तक देखभाल का प्रावधान है। बावजूद इसके न तो महकमा खुद पौधों को बचा पा रहा और न ग्रामीणों को इसके लिए प्रेरित कर पा रहा। हर साल, बस किसी तरह लक्ष्य पूरा करने और बजट को खपाने की होड़ सी नजर आती है।
    अब पौधों के जिंदा न रह पाने के पीछे विभाग के तर्कों पर भी नजर डालते हैं। अफसरों के मुताबिक वन्यजीवों के साथ ही भूक्षरण, जंगल की आग, अवैधकटान जैसे कारणों से 30 से 40 फीसद पौधे जिंदा नहीं रह पाते। जानकारों की मानें तो यहां ये आंकड़ा 50 से 60 फीसद तक है और कहीं-कहीं तो 70 फीसद तक। ऐसे में विभाग की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगना लाजिमी है। दरअसल, पौधरोपण के कार्यक्रम में सबसे बड़ी खामी है कि नियोजन की। विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में शायद ही कभी स्थानीय जलवायु के अनुरूप पौधरोपण के लिए प्रजातियों का चयन होता हो। यह पौधों के न पनप पाने का सबसे बड़ा कारण है।
    पर्यावरणविद् व पाणी राखो आंदोलन के प्रणेता सच्चिदानंद भारती कहते हैं कि इसके लिए शासन और विभाग में बैठे लोगों को नियोजन का ढर्रा बदलने की जरूरत है। वह कहते हैं कि मौजूदा स्थिति में पौधरोपण को तो हम उद्वेलित दिखते हैं, मगर किस तरह के पेड़ लगा रहे हैं, इसकी ठीक से प्लानिंग अथवा तैयारी कभी नहीं होती। एक रोपित पौधे की तब तक उचित देखभाल होनी चाहिए, जब तक कि वह 10 साल की आयु पूरी न कर ले। कहने का आशय से वन समूह से जुड़े प्रत्येक अंग को मजबूत करना होगा, तब जाकर ही पौधरोपण सफल हो सकता है। उत्तराखंड समेत हिमालयी राज्यों में अर्थव्यवस्था स्थानीय संसाधनों पर आधारित होती है। इसके लिए जंगल, पानी व मिट्टी सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं।
    पर्यावरणविद् पद्मश्री डॉ. अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि इसे तात्कालिक नहीं, बल्कि दीर्घकालिक रूप में देखना होगा। वनों को स्थायी अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जाना चाहिए। साथ ही ग्रामीणों को साथ जोड़कर उनकी जरूरतों को भी पूरा किया जाना चाहिए। इसके लिए विभाग को भविष्य के लिए प्लानिंग, प्रजाति, मृत्युदर व रणनीति का ठोस प्लान तैयार करना होगा।