लाटू देवता मंदिर जहां भक्त तो दूर पुजारी भी नहीं कर पाते दर्शन

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गोपेश्वर, उत्तराखंड को यूं ही नहीं देव भूमि कहा जाता है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो अपने आप ने अनेकों रहस्यों को समेटे हुए है। एक ऐसा ही रहस्य चमोली जिले के देवाल विकास खंड के वाण गांव में स्थित लाटू देवता का पौराणिक मंदिर है। जहां भक्त तो दूर पुजारी भी आंखों पर पट्टी बांध कर पूजा अर्चना करते है। इस मंदिर के अंदर क्या है इसे आज तक कोई नहीं देख पाया है।
ये है मान्यता

हिमालय की गोद में आठ हजार फीट की उंचाई पर बसा वाण गांव जहां सिद्धपीठ लाटू देवता का पौराणिक मंदिर है। माना जाता हैं कि लाटू कन्नौज के गर्ग गोत्र के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। जब शिव के साथ नंदा का विवाह हुआ तो बहिन को विदा करने सभी भाई कैलाश की ओर चल पड़े। इनमें लाटू भी शामिल थे। मार्ग में लाटू को इतनी तीस (प्यास) लगी कि वह पानी के लिए इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उन्हें एक घर दिखा और वो पानी की तलाश में इस घर के अंदर पहुंच गए। घर का मालिक बुजुर्ग था, सो उसने लाटू से कहा कि कोने में रखे मटके से खुद पानी पी लो। संयोग से वहां दो मटके रखे थे, लाटू ने उनमें से एक को उठाया और पूरा पानी गटक गए। प्यास के कारण वह समझ नहीं पाए कि जिसे वह पानी समझकर पी गए, असल में वह मदिरा थी। कुछ देर में मदिरा ने असर दिखाना शुरू कर दिया और वह उत्पात मचाने लगे। इसे देख नंदा क्रोधित हो गई और लाटू को कैद में डाल दिया। साथ ही आदेश दिया कि इन्हें हमेशा कैद में रखा जाए। यहां लाटू युगों से कैदखाने में हैं और यह कैदखाना ही उनका मंदिर भी है। दूर दूर से लोग अपनी मनोकामना लेकर लाटू के मंदिर में आते हैं। कहते हैं यहां से मांगी मनोकामना जरुर पूरी होती है।
क्या कहते है पुजारी व अन्य लोग

लाटू मंदिर के पुजारी खीम सिंह और क्षेत्र पंचायत सदस्य वाण हीरा सिंह पहाड़ी कहते हैं कि लाटू देवता पूरे पिंडर/दशोली(आंशिक) क्षेत्र के ईष्टदेव हैं। वाण गांव के ग्राम प्रधान खीमी राम और मंदिर समिति के अध्यक्ष नारायण सिंह कहते हैं कि भक्त की एक ही पुकार पर भगवान दौड़े चले आते हैं, लेकिन भगोती नंदा के धर्मभाई एवं भगवान शिव के साले लाटू की माया ही निराली है। लाटू देवाल क्षेत्र (चमोली) के ऐसे देवता हैं, जिनके दर्शन भक्त तो दूर, खुद पुजारी भी नहीं कर सकता। मंदिर के कपाट बैसाख पूर्णिमा को खुलते हैं और छह माह बाद मार्गशीर्ष पूर्णिमा को बंद कर दिए जाते हैं। मंदिर के अंदर क्या है, किसी को नहीं मालूम। बारह बरस बाद जब नंदा मायके (कांसुवा) से ससुराल (कैलाश) जाते हुए वाण पहुंचती है, तब इस दौरान नंदा का लाटू से भावपूर्ण मिलन होता है। इस दृश्य को देख यात्रियों की आंखें छलछला जाती हैं। यहां से लाटू की अगुआई में चैसिंग्या खाडू के साथ राजजात होमकुंड के लिए आगे बढ़ती है। लेकिन, वाद्य यंत्र राजजात के साथ नहीं जाते। वहीं मान्यता है कि वाण में ही लाटू सात बहिनों (देवियों) को एक साथ मिलाते हैं। यहीं पर दशौली (दशमद्वार की नंदा), बंड भूमियाल की छंतोली, लाता पैनखंडा की नंदा, बद्रीश रिंगाल छंतोली और बधाण क्षेत्र की तमाम भोजपत्र छंतोलियों का मिलन होता है। अल्मोड़ा की नंदा डोली व कोट (बागेश्वर) की श्री नंदा देवी असुर संहारक कटार (खड्ग) वाण में राजजात से मिलन के पश्चात वापस लौटती है।

ऐसे पहुंचा जा सकता है यहांदेश की राजधानी दिल्ली से सडक अथवा हवाई मार्ग से देहरादून तक आने के बाद, सडक मार्ग से वाहन से ऋषिकेश से कुल 275 किमी की दूरी पर कर्णप्रयाग, नारायणबगड, थराली, देवाल, मुंदोली, लोहजंग होते हुये वाण गांव स्थित लाटू मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।

ठहरने के लिए स्थान
वाण में रहने के लिए पांच निजी लाॅज सहित जीएमवीएन और वन विभाग का गेस्ट हाउस है। इसके अलावा होमस्टे की व्यवस्था है। साथ ही स्थानीय गाइड भी यात्रा व यहां के बारे में जानकारी के लिए उपलब्ध रहते है।